मुद्दतों रही साथ मिरे पर मिली
नहीं कभी,
दिल्लगी बड़ी जालिम, किताबों
में दबी रही.
हर्फ़-हर्फ़ सजाया था जिसे कसीदाकारी
से,
सफ़ेद सफ़हे की इबारत मटमैली
सी मिली.
वो दर्द वो जूनून, मयस्सर
नहीं आजकल,
अपनी बयानबाजियां, बस तंज ही
लगीं .
पैगाम वही ताजा जो महफूज रहें जेहन में,
दिल तलक न पहुंचे दर्द तो
कब्र भली सही.
इंसान हुआ नादान तो परेशां फिरे
हर वक्त,
मौसमों के आने-जाने में कोई दर्द
कम नहीं.
-नवनीत नीरव-
3 टिप्पणियां:
waha.....
तुम कमाल करते हो. शब्दों के साथ क्या खूब खेलते हो. ..लिखते रहो
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