(मुझे याद है गर्मियों की छुट्टियों में हमें पापा गाँव ले जाते थे । गाँव जाकर मुझे बिल्कुल नयापन महसूस होता था। कुछ चीज़ें गाँव के बारे में, मैं जानता जरूर था पर यह तस्वीर गर्मियों की छुट्टियों में कुछ ज्यादा स्पष्ट हो जाती थी।कुछ बातें जिन्हें मैं अक्सर सोचा करता था, उसे मैंने कविता का रूप देने की कोशिश की है ।)
साँझ की चादर फैलते ही ,
तारे मुस्कुराने लगते हैं अक्सर,जब कोई बाला संझवत दिखा जाती है,
या दरवाजे पर लालटेन लटका जाती है ,
जो पुरवाई संग हिलती रहती है ,
मानों किसी बच्चे का पालना हो।
दालान सुबह से ही तैयार बैठी है ,
हर आगंतुक का नाम पता पूछती हुई,
शाम ढले जमने वाली महफ़िल के इंतजार में ,
जो अब ठहाके लगा रही है ,
दुनिया भर की खबरें सुन ,
महफ़िल जमे या न जमे,
लालटेन तो जलती रहेगी यथाशक्ति,
यह बताते हुए गाँव जग रहा है ।
उपलों का धुआं हर कमरे के मन में ,
रच -बस सा गया है ,
रोटियों की खुशबू के क्या कहने ?
वो तो जैसे अंतरात्मा को छू जाती है,
और जो अंतरात्मा को छू जाए,
क्या आप उसे भुला सकते हैं भला ?
न जाने कितने चक्कर बनते हैं,
एक लैंप के चारों तरफ बच्चों के,
सारा गाँव मानों प्रतिबद्ध है ,
नौनिहालों के भविष्य के लिए,
अधखुली उनींदी आंखों की कोशिश जारी है
कल्पनाओं में हकीक़त का रंग भरने के लिए ।
सांझ ढले गाँव में,
एक तैयारी चलती रहती है,
एक सुखद भारत के निर्माण की,
दूर शहरों के कोलाहल से,
योजनाबद्ध तरीके से, गुपचुप से,
वह दिन ज्यादा दूर नहीं,
जब सुदूर अन्तरिक्ष से कोई हमें पुकारेगा,
हमें हमारे भारत का नाम ले के ।
हमें हमारे भारत का नाम ले के ।
-नवनीत नीरव -
साँझ की चादर फैलते ही ,
तारे मुस्कुराने लगते हैं अक्सर,जब कोई बाला संझवत दिखा जाती है,
या दरवाजे पर लालटेन लटका जाती है ,
जो पुरवाई संग हिलती रहती है ,
मानों किसी बच्चे का पालना हो।
दालान सुबह से ही तैयार बैठी है ,
हर आगंतुक का नाम पता पूछती हुई,
शाम ढले जमने वाली महफ़िल के इंतजार में ,
जो अब ठहाके लगा रही है ,
दुनिया भर की खबरें सुन ,
महफ़िल जमे या न जमे,
लालटेन तो जलती रहेगी यथाशक्ति,
यह बताते हुए गाँव जग रहा है ।
उपलों का धुआं हर कमरे के मन में ,
रच -बस सा गया है ,
रोटियों की खुशबू के क्या कहने ?
वो तो जैसे अंतरात्मा को छू जाती है,
और जो अंतरात्मा को छू जाए,
क्या आप उसे भुला सकते हैं भला ?
न जाने कितने चक्कर बनते हैं,
एक लैंप के चारों तरफ बच्चों के,
सारा गाँव मानों प्रतिबद्ध है ,
नौनिहालों के भविष्य के लिए,
अधखुली उनींदी आंखों की कोशिश जारी है
कल्पनाओं में हकीक़त का रंग भरने के लिए ।
सांझ ढले गाँव में,
एक तैयारी चलती रहती है,
एक सुखद भारत के निर्माण की,
दूर शहरों के कोलाहल से,
योजनाबद्ध तरीके से, गुपचुप से,
वह दिन ज्यादा दूर नहीं,
जब सुदूर अन्तरिक्ष से कोई हमें पुकारेगा,
हमें हमारे भारत का नाम ले के ।
हमें हमारे भारत का नाम ले के ।
-नवनीत नीरव -