शनिवार, 14 मार्च 2009

कुछ समाज पर.. जो अभी तक मैंने लिखा नही.....


पिता और पुत्री

विश्वास हिल जाता है उस पिता का,
इस
समाज में ,
जिसे अपनी बेटी ब्याहनी होती है।
क़दमों
की डगमगाहट,
स्पष्ट रूप से दिखाई दे जाती है,
मानो अब वह,
लड़खड़ा कर गिर पड़ेगा।
बचपन से लेकर आज तक,
अपनी बेटी के लिए जो स्वप्न देखा था,
आज उसे पूरा करने में,
खुद को,
असमर्थ पा रहा है।
समझौते तो दोनों को ही करने होते हैं,
पर अंतर यही है,
बेटी के समझौते की चर्चा,
हरेक जुबान पर होती है,
और बेचारा बाप,
अपनी बेबसी छुपाये फिरता है।
बेटी के लिए पसंद -नापसंद,
उसे ही समझना होता है,
चाहते हुए भी,
अपनी प्यारी को,
उस हाथों में सौपना पड़ता है,
जिसकी कल्पना उसने की ही नहीं।
हर बाप अभावग्रस्त नहीं होता,
परन्तु इस मोड़ पर आते ही,
असहाय हो जाता है।
जवाब तो उसे ही देना होता है,
बेटी के साथ,
इस समाज को भी,
जो उसकी एक गलती के इंतजार में,
मुंह बाए खडा है
उसे तो सबको समझाना है,
बेटे के बाप से लेकर,
अपनी पत्नी तक को,
"रिश्ता ठीक ही है" ,
इसी बात से,
उसे करना पड़ता है संतोष,
कभी ऐसा नहीं होता कि-
प्यास बुझा दे ओस।
उसे तलाश रहती है,
इक सिद्ध पुरुष की,
जो उसे वचन दे सके कि-
"वह उसकी पुत्री को पलकों के पालने में रखेगा"
इसी कल्पना में वह खो जाता है।
मन -मुग्ध हो अपना सर्वस्व,
सौंप देता है उस मानव को।
इसी आशा के साथ,
शायद यही इसकी किस्मत है
भगवान की यही मर्जी थी।
उसकी सारी ख्वाहिशें पूरी हों,
यह जरूरी नहीं,
पर एक रौशनी हमेशा ,
उसके मन में जलती रहती है।
अपने बेटी के उज्ज्वलता की,
वह कामना करता है,
यह जानते हुए,
आशाएं कभी मरती नहीं
यही उसका कर्म है।
हर बात आज इस ओर घूमती है ,
कौन किसकी मजबूरी है ?
पिता या उसकी पुत्री,
इस बात पर विचार करने की,
सबकी अपनी-अपनी नीति है,
कोई कुछ भी कहे पर,
यही हमारे समाज की रीति है।
यही हमारे समाज की रीति है।

-नवनीत नीरव-