रविवार, 3 मई 2015

उस अंधड़ में आम तले...

एक नहर का किनारा,
पेड़ों की कतारें,
आमों की छाँह,.
और वो अंधड़,
जो अमूमन चला आता था
गर्मियों में अलसुबह...

"बगीचा चले जाओ...आम बीनने"
एक सुनी हुई आवाज,
फिर गूँजती कानों में ,
मुंदी हुई अलसाई आँखें,
और आवारा-से कदम,
जो उठ जाते थे चीन्हे से रास्तों पर,
खेतों में पड़े मिट्टी के ढेलों को फोड़ते,
रौंदेत-धांगते गेहूँ और तेलहन की खूँटियाँ,
क्या मजाल जो उफ़ करके बैठ जाएँ,
नींद थोड़ी बहुत जाती रहती...

धूल भरी आँधियों को चीरते,
पहुँच जाते अमिया के तले,
टप-टप-धपाक की आहट,
कच्चे-पके कोलवांसी,
सब बंद हो जाते अपने गमछे में,
चाचा-पापा-भईया को देने की चाह,
लड़ना झगड़ना उनको बचाने की जुगत में...
छुट्टे मुँह गरियाना
अगर जो कोई और बीन रहा हो
अपनी अमानत
उस गाँछ तले.

आजकल दूसरे ही अंधड़ में लड़ता भिड़ता रहता हूँ,
ये जानते हुए मेरी अमानत कोई और बीन रहा होगा.
मेरे गाँव के उस अंधड़ में आम तले.