रविवार, 23 अगस्त 2009

मसूरी

(मैं अपनी समर ट्रेनिंग के लिए इस बार देहरादून में था। रात में गेस्ट हॉउस की छत से मसूरी दिखाई देती थी। उसी को देख कर मैंने कुछ पन्तियाँ लिखी हैं । ये पंक्तियाँ उस समय लिखीं गई हैं जब तक मैं मसूरी नहीं गया था ।)

शाम ढलते ही कौन छिड़क जाता है,
रंगीन सितारे पहाड़ी बदन पर तुम्हारी,
पूछता है व्याकुल हो देहरादून,
निहार कर तेरी सुन्दरता ओ मसूरी।

हर रोज देखता हूँ नए अजनबी चेहरे,
शाम ढले लौटते हैं तुझसे जब मिलके,
करते हैं हरदम सब तेरी ही बातें,
कुछ सुन्दरता की औ कुछ अन्तरंग यादें,
फासले कहाँ है हमारे बीच मीलों के ,
बरसों निभाता रहा हूँ तुझसे यारी,
मिलने की हसरत दबाये हूँ कबसे,
फ़िर भी न मिटा सका यह दूरी ।
पूछता है व्याकुल हो देहरादून,
निहार कर तेरी सुन्दरता ओ मसूरी।

सुनता हूँ अक्सर तेरी ही बातें,
रंगीन मौसम तुझसे मिलने हैं आते,
अमलतास और गुलमोहर के झुमके,
वर्षा बसंत मिलजुलकर हैं पहनाते,
चश्में औ झरनों की पूछ है बढ़ जाती,
जब तुम बदरिया की चुनरी लहराती,
ये मेरा वहम है या फिर कुछ और,
जब भी देखता हूँ तुम लगती हो प्यारी,
पूछता है व्याकुल हो देहरादून,
निहार कर तेरी सुन्दरता ओ मसूरी।

जब मसूरी घूमने गया तो एक ही सवाल मैंने किया ........

सफ़ेद सफ़हे सी चादर ओढे,
चिरहरित पत्तों का घूंघट डाले,
निहारती जाती हर सैलानी को,
आने वाले हर मानी को,
हर कोई दीवाना यहाँ पर,
क्या तुम ही पहाड़ों की रानी हो ?

-नवनीत नीरव-