शनिवार, 26 जुलाई 2014

हत्यारा

पूरब से निकलता हुआ,
सूरज,
चुग जाता है,
भोर की एक-एक तारिकाएँ,
जब्त कर लेता है,
नक्षत्रों की उधार ली हुई चमक.

संवेदनशीलता एक दायरे तक,
बच पाती है नर्म-मुलायम,
उसके बाद चाहे,
कितना ही फिरा लो,
ठंडी-गर्म छुरियां,
बटर की दरो-दीवार पर.

रेगिस्तान में भटकते,
बंजारे को,
बड़ी बेरहमी से मार डालता है,
उसका अकेलापन,
किस कदर ख़तरनाक हो सकती है,
संवादहीनता.

अपने सपनों, उम्मीदों, अरमानों के,
अक्सर गले रेतता मैं,
बड़े इत्मिनान से,
फेरते हुए छुरे,
हर रात,
जब कुछ पल बेरहम हो जाते.

सूरज, मौसम, रेगिस्तान, रात
जब सब कुछ ठीक है,
अंदर एक बेचैनी 
लगी रहती है, 
तोड़-फोड़, नष्ट, कुरूप करने की,
एक लालसा,
पल-पल पलती है.

- नवनीत नीरव -