बुधवार, 2 सितंबर 2009

युवा मंथन

(इस साल फिर से सूखा पड़ा हैशहरी क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच जो आर्थिक खाई है, अब वो और गहरी हो जायेगीशहर फिर से कितने ही बेकार लोगों को गाँव छोड़ने पर मजबूर कर देगाकौन इनकी मदद करेगा ? और क्यों करेगा ?........ये बड़ा अहम् सवाल हैइस कविता के माध्यम से मैंने ख़ुद के और अपने जैसे युवा दोस्तों के आत्म मंथन की कोशिश की है। )

हवा को मालूम है उसे कहाँ जाना है,
संग
कितने सूखे पत्ते उड़ाना है,
जिंदगी
में कुछ कदम सादगी से रख,
कितने
पल रुकेगा इसका क्या ठिकाना है

समन्दर से लौटती उन कश्तियों को,
नीडों
में लौटते उन पंक्षियों को ,
ख़बर है समन्दर और आसमां की,
गहराई में पलता भयानक वीराना है

आपदाओं की मार से सहमे घरों में,
दुबकी हुई निरीह मानवता को ,
अपने
कम्बल की छाया दे दो तो,
ढलती शामों का वही आशियाना है

सड़कों
पर चल लेकिन संभल के,
तेरे अपनों में कुछ वहां हाथ पसारते,
मुट्ठी
भर चावल एक अदद रोटी ही,
समाज
का करता बंटवारा है

-नवनीत नीरव -