शनिवार, 31 अगस्त 2013

ये मूरतें हताश नजर आती हैं.


दूर टहलती हुई वादी में,
उस तरफ की कुछ पुरानी कंदराएं,
सारा दिन जमघट सा रहता है,
कैमरे की क्लिक-क्लिक, हंसी ठहाकों में,
आत्मीयता के भाव भी अलग-अलग,
पुरखों के कर्म जरूर शुद्ध रहे होंगे,
जो दिख रही ये विरासत,
पर जब भी पाँव रखते हैं यहाँ,
इन मूर्तिकारों के वंशज,
ये मूरतें हताश नजर आती हैं.

सदियों से खड़ी बर्फ सी इन मूरतों में,
पुरातन अभी जगता है,
कुरूप हुए चेहरे संग,
बेरहमी से अंग-भंग हुई काया में,  
जो शक्तिशाली है, कब्ज़ा उसी का है,
धर्म भी वही चलाएगा,
इतिहासकार इसी भ्रम में है,
किसने तोड़ा, किसे बचाया गया ?
ये व्याख्यान कंदराओं में जरूर गूंजते हैं
पर जब भी पाँव रखते हैं यहाँ,
इन मूर्तिकारों के वंशज,
ये मूरतें हताश नजर आती हैं.

-नवनीत नीरव-