सोमवार, 14 जुलाई 2014

गाँव अभी ले, ना अईल∙ बुद्धन


(एक माँ का अपने बेटे के लिए सन्देश. जो मुम्बई में कमाने गया है. पैसे नियमित रूप से भेजता है गाँव पर,लेकिन पिछले चार-पाँच सालों में एक बार भी घर लौटा नहीं है)

बम्बे गइल,उहें के भइल,
गाँव अभी ले, ना अइल बुद्धन,
पइसा वइसा मिले समय पर,
बाकि चाहत रहीं तोहर दरसन,
अइसन नोकरी के का फ़ायदा,
छोड़वा देवे जे गाँव-आंगन,                 
छोड़ के इहवां के आपन मेहरारू,
का उन्हे जोड़ लेल गेठबंधन...?
(१)
कच्चा आंगन से गइल रह तू,
अब त पक्का घर बा,
अधिया, तीसरी करत रहल,
अब आपन बिगहा भर बा,
माड़-भात आ दाल खेसारी,
एकरा से जादे का पइत,
झींगा, गरई, रोहू, पोठिया,
आहर उबीछ के लेअइत,
तहरे करम पर मिल जाता अब,
कबो-कबो कुछ चिकन-चाकन,
बम्बे गइल, उन्हें के भइल,
गाँव अभी ले ना अइल बुद्धन...
(२)
आंगन में के तोंत काट के,
जगह फ़ैल कर देनी जा,
बैलन के सब नाद चरन अब,
घर के पिछुती ठेल देनी जा,
शाम के आपन दलानी में,
अब केहू ना आवे जावे,
झूठ-मूठ लालटेन ससुरा,
टंकी भर तेल पी जावे,
अबके पैसा भेजत तब,
छत प कोठरी बनवा दिहती,
डिश संगे रंगीन टीभी,
ओकरे में लगवा दिहती,
अइसन कौनो एस्कीम देखत,
सोलर पलेट से होइत चमचम,
बम्बे गइल, उन्हें के भइल,
गाँव अभी ले ना अइलअ बुद्धन...
(३) 
पहिले गाँव में नाली बहित,
अब बहेला सगरी नाला,
गली-नाली, कोली खातिर,
बात-बात पर निकले भाला,
झगरा झंझट होला हरदम,
लाठी-गंडासी भंजाये हरदम,
केहू साला-साली कहे,
केहू माई बहिन गरियावे,
डर लागेला कहीं कौने बात पे,
रायफल-पिस्टल ना चल जावे,
आदिम भइल अब राकस इहवां,
बिगड़ल गाँव इहे लच्छन,
बम्बे गइल, उन्हें के भइल,
गाँव अभी ले ना अइल बुद्धन...
(४)
सोचत रहीं अबकी बारी,
तीरथ दरसन सब कर लिहतीं,
सोनपुर के मेला से,
बाछा बैल मंगवा लिहतीं,
छोटका के अगुवा आवेला,
पर हमनी के उ ना एक सुनेला,
दिन-दिन भर तास पीटे अब,
लबनी भर-भर ताड़ी पियेला,
कैसहूँ उ बी०ए० कर जाइत,
पराइमारी मास्टरी में लग जाइत,
बियाह सादी सब छुट्टी करके,
इत्मिनान भईल चाहीं हम,
बम्बे गइल ,उहें के भइल,
गाँव अभी ले, ना अइलअ बुद्धन,
(५)
कब्बो कब्बो सुनत रहनी,
समय उहाँ के भारी बा,
सब बाहर वाला लोग के,
वापस भेजे के तैयारी बा,
अइसन काहे करे सब,
इ बात समझ न आवे हमरा,
मेहनत मजूरी से सब पेट पोसे,
फिर काहे के इ झंझट झगरा,
सोचत रही तू लौट अब अइत,
इहवां दोकान दउरी कुछ कर लेत,
एही बहाने छोटके के कुछ,
काम-काज धरा लिहत,
दूर-देस परदेश कभी ना,
आपन जइसन लागेला,
जैसे बूढ़ पूरान सुग्गा,
पोस कभी ना मानेला,
सोच विचार ल ठोक ठठाके,
फिर लीह आपन डिसीजन,
बम्बे गइल ,उहें के भइल,
गाँव अभी ले, ना अइल बुद्धन.
-नवनीत नीरव-