शनिवार, 25 मई 2013

पथरीले विचार


एक लम्हा था हँसता खिलखिलाता,
सहसा शोर में बदल गया,
बेतरतीब हो गए मेरे नाजुक ख्याल,
शर्मिंदगी ने सिर नीचा किया.
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लोग कहते हैं दूरी जरूरी है,
तुम्हारे सबके दरम्यान,
एक ख्याल था अपनापन-सा उस वक्त,
अब सन्नाटा है अट्टहास करता हुआ.
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वो रात कैसे गुजरी,
तुम्हें क्या बताऊँ,
अँधेरा था रिक्त,
नींद अन्जान नदी के पार,
करवट बदलता रहा था मैं,
दोनों पाटों के बीच,
हथेलियाँ ढीली पड़ रही थीं,
और तुम्हारी यादें छिटक कर दूर.
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अपने गाँव से आये पडोसी को,
अपना कहने में घबराता हूँ,
वो तो खुद आते पर संग लाते,
पथरीले विचार अपने भूत, वर्तमान.

-नवनीत नीरव
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मौसम



टूटते पत्तों के मौसम से ,
इक आखिरी पत्ता बचा कर रखना ,
पतझड़ के मौसम लौट कर आएँगे
इनकी याद किताबों में दबा कर रखना

सफर का हर आदमी मतलबी नहीं होता,
पर अपने जज्बात पर काबू रखना ,
सफर के अगले मोड़ पर मिले तो ,
कह देना जो भी है कहना
पतझड़ के मौसम लौट कर आएँगे
इनकी याद किताबों में दबा कर रखना

मौसम बदलते ही रंग उतर जाते हैं ,
भावनाएं मरती हैं लोग बदल जाते हैं ,
पर कुछ यादें जो पड़ी हो सफेद कपड़ों पर ,
मुश्किल होगा उन्हें मिटा सकना
पतझड़ के मौसम लौट कर आएँगे
इनकी याद किताबों में दबा कर रखना


तुम चलो मैं चलूँ संग खुशियाँ चलें ,
इस ज़माने के साथ हर गलियाँ चलें ,
काफिला - -पहाड़ सुकून देगा हमें,
गर निकला हो उनसे "नीरव" झरना
पतझड़ के मौसम लौट कर आएँगे
इनकी याद किताबों में दबा कर रखना

-नवनीत नीरव -

बही-खाता


साधो! क्यों पाया यह जीवन,
जो यूँ ही अब रीत गया.

कर्ज मिला कुछ, कर्ज लिया कुछ,
रिश्ते नातों में खर्च किया कुछ,
फिर चुकते-चुकाते बीत गया.

कुछ कर्ज था अपनी जननी का,
जन्मभूमि , कर्मभूमि का,
शेष धर्म-श्राद्ध का गान हुआ.

खाली हाथ आना, खाली हाथ जाना,

बही खाते का हिसाब चुकाना,
आने वालों का यही लक्ष्य हुआ.

-नवनीत नीरव-