बुधवार, 5 मार्च 2014

वैज्ञानिक मनोवृत्ति और समाज


बाबू ! तू मिट्टी खाता है,
पत्थर, पेन्सिल, सिक्के,
सबको मुंह में डालता है,
गन्दा है ये सब,
ऐसा नहीं करते हैं.
(छीनते हुए हाथों से)

मुन्नी! कल जो दिया था तुम्हें,
चाबी वाला खिलौना,
अरे! तुमने तो पुर्जे-पुर्जे खोल दिए,
तोड़ दिया न तुमने इसे,
आज से कुछ भी नहीं मिलेगा तुम्हें.
(घूरती हुई दो बड़ी-बड़ी आँखें) 

भरी दुपहरी में चैन नहीं है!
रात में छत पर क्या कर रहे हो ?
बारिश में भींग ही गए न तुम,
सब कांटते-छाँटते क्यों रहते हो,
गिरा दी न मेरे कैंची की धार.
(कपड़े काटने और मूंछ छांटने की कैंची दिखाते हुए)

कहीं पिकनिक पर जाने की जरूरत नहीं,

एग्जाम सिर पर हैं पढ़ो,
दोस्तों के संग ज्यादा आवारागर्दी मत करो,
फ़लाने बाबू का लड़का कितना सभ्य है.
फर्स्ट आये तो दुपहिया दिला दूंगा.
(छोटे-छोटे लक्ष्य मीटर के टेप से नाप कर तय करते हुए)

कुछ तयशुदा काम,
घिसे-पिटे पूर्व नियोजित तरीके,
एक आत्मघाती दस्ते की तरह घेरे रहना,
मुल्लमें की तरह चढ़ना सोच का नई सोच पर,
जैसे जमना पत्थर के फर्श पर काई का.
( जाने-अनजाने कुंद होती वैज्ञानिक मनोवृतियाँ इस समाज की)

-नवनीत नीरव-