सोमवार, 24 सितंबर 2012

अवसाद


सुनहरे बचपन की भरी दुपहरी में,
कुछ सपने देखे थे मैंने,
गाँव की पुरानी नहर के किनारे,
जामुन के चंद पेड़ों की छाँव तले,
कुछ मनचाहा करने की,
अपनी सीमाएं जो नहीं मालूम थी,
सोचा था मुक्कमल करूंगा अपने वजूद को,
पर हकीकत कुछ और ही बना गयी,
सपने पूरे हों यह जरूरी तो नहीं,
जो मिला उसे अच्छे से निभाया जाय.

मन में उत्साह भर कर,
शुरू किया एक नया सफ़र,
कुछ जोखिम लेने के लिए,
कुछ आत्मसंतुष्टि की खातिर,
कुछ लोगों की नज़रों ने इसे,
युवास्था का जोश बताया था,
"आदर्शों और आत्मविश्वास से ओत प्रोत".
आगे बढ़ा ऐसी तुच्छ बातों को,
नजर अंदाज कर निर्भीकता से,
चलता चला मैं खुद की खातिर.

सहसा महसूस होता है,
सिर्फ मैं ही गतिशील हूँ,
परिवेश तो यथावत है,
रास्ते खाली पड़े हैं,
लोग जड़वत हैं खंडहरों के बुतों से,
मानों किसी तांत्रिक के शाप से अभिशप्त हों.
आखिर, मैं क्यों चल रहा हूँ?
किसकी खातिर चल रहा हूँ?
इस तरह कहाँ पहुंचना है मुझे?
अकेला कब तक चलूँगा ? 

लक्ष्य खोता सा लग रहा है.
पुतले अट्टहास कर रहे हैं
कमरे की छत अचानक फैलने लगी है,
अँधेरा घुप्प हो गया है और चुप भी,
गला सूखा है मेरा ,
पर शरीर पसीने से तर है,
भविष्य और कितना निराश करेगा....
मैं खुद को कितना नाउम्मीद करूँगा..
टिटहरी फिर बोली है..
चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही है,
एक सवेरा फिर होने को है,
चमकीले सपने का एक स्याह पन्ना,
फिर पलट गया,
और इसी तरह पलटते-पलटते खाली पन्ने,
शायद एक दिन उम्र भी चूक जायेगी.

-नवनीत नीरव-    

सोमवार, 17 सितंबर 2012

समंदर का बचपना नहीं जाता


समंदर का बचपना नहीं जाता,
लहरें अठखेलियाँ करती जाती हैं,
उधम मचाती हुई शोर करती हैं,
देख जिसे पथिक क्षण भर ठहर जाता है,
अपने तमाम दुखों को भूल,
सिमट आता है उस जगह उस लम्हे में,
असीमित प्यार से सराबोर होता हुआ. 

समंदर विनोद करता है
सहसा भींगो जाता है,
अन्तर्मन को शीतल करता हुआ,
सागर मनोभावों को छूता है,
थोड़ी ही देर ठहरने वाला मुसाफिर,
जो पहले भींगने से परहेज करता था,
उसके संग बच्चा बन जाता है,
लहरों पर इधर-उधर भागता हुआ. 

समय बीतता जाता है,
समंदर नहीं थकता, 
पथिक बैठ जाता है किनारे पर,
निहारते हुए अल्हड़ बातूनी सागर को,
अंदर एक शांति महसूस हो रही है,
अब कोई जल्दी नहीं है उसे,
समंदर खेलता ही जाता है,
बिना थके बिना रुके,
सचमुच समंदर का बचपना नहीं जाता.  

-नवनीत नीरव-

रविवार, 16 सितंबर 2012

नए प्यार का मौसमी गीत...


जाने कैसे तुमसे मिलके,
अरमां जगे कुछ हल्के-फुल्के,
सूने घर में आकर कोई,
छेड़ गया हो सरगम खुद से,
हाल-ए-दिल मेरा,
फिर बेक़रार हुआ.   
यकीं हुआ खुद को,
मुझे अब प्यार हुआ.

गीत नए कुछ बनने लगे हैं,
खोये सुर भी मिलने लगे हैं,
आकर फिर तुम
छू कर साजों को,
भर दो नए धुन,  
खामोश बेसुरों में,  
सुने बिना जिसको,
ये दिल बेजार हुआ .
  
रिमझिम बूंदें जिसको गाएं,
मौसम सुनके रीझ-सा जाए,
शरमाये गुलमोहर,
अमलतास दमके,
मंथर मेरे ख्यालों को,  
उड़ने खातिर पर मिल जाएँ,
सुनकर मेरी नज्मों को,
कहें सब प्यार हुआ.   

-नवनीत नीरव-

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

पता नहीं कैसे...... ?


दिन भर रही साथ, फिर अपने घर गई,
जिंदगी खुदगर्ज, एक दिन छोटी हो गयी.

सोता रहा अभी तक, घर में आराम से,
भ्रष्टाचार की चींटी, बिस्तर में घुस गई.

सिर्फ मतदान ही है अपने, जनतंत्र का अधिकार,
लाचारी आम आदमी की, अब जोरू बन गयी.

बच्चा रो-रोकर मांग रहा, खिलौने बार –बार,
अचानक से बगुलों की, बारात गुजर गयी.

खरीद कर नए मुखौटे, बन रहे प्रधानमंत्री,
चुनने का अधिकार, मोबाइल मकड़ी ले उड़ी.

दूरदर्शन,लोकसभा,राज्यसभा, बापू के तीन बन्दर,
देखने, सुनने, बोलने की जिनको इजाजत नहीं.

कल कुछ लिखा तंग आकर, निकालने को भड़ास,
पता नहीं लोकतंत्र को कैसे, ये गाली लग गई .

-    - नवनीत नीरव -