शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

रिश्ते हमारे -तुम्हारे

रिश्ते जिनको हम,
पिछले कुछ महीनों से,
निभाने की कोशिश कर रहे हैं,
अब तो वो कभी इ-मेल या फिर,
मोबाइल की घंटियों से उलझे लगते हैं.
थोड़ी बहुत बातें इधर –उधर की,
और फिर निरुत्तर,
जैसे क्या बात करें ?
जिसे हम सुलझाना तो चाहते हैं,
पर हमारे बीच की दूरी,
उसे और उतनी ही उलझा जाती है,
जैसे माजी (spider) के जालों में,
फंसा कोई पतंगा,
बाहर निकलने की कोशिश में,
अपनी जान गवां देता है,
वो सुनहले लंबे पंख,
जिसे कुदरत ने दिए हैं,
ऊँची उड़ान भरने की खातिर,
वही उसे जालों में इस कदर उलझाते हैं,
कि वह बेबस हो दम तोड़ जाता है,
क्या उसे उस वक्त
अपनों की याद न आती होगी,
जिनको उसने बीतते समय के साथ,
ऊँची उड़ान की खातिर,
पीछे छोड़ दिया था.
कभी-कभी अतीत के साये,
इसी तरह मुझे घेर लेते हैं,
पुराने यादों की सिलवटें,
गुजरे पलों की याद दिलाती है,
कही इस व्यावसायिक जिंदगी के,
पंख लगाकर,
उड़ता हुआ,
इतनी दूर न निकल जाऊं,
जहाँ ये मेल- मोबाइल कुछ भी न हो,
आपकी यादें तो जरूर होंगी,
पर कोई अपना नहीं होगा,
आप भी नहीं.......

-नवनीत नीरव-