बुधवार, 29 जुलाई 2009

बादल भैया

(इस इस कविता में एक गाँव की छोटी सी बच्ची जो बरसात नहीं होने से परेशां है। उसके मन में कई विचार आते हैं। बादल को अपना भाई मानकर वह उनसे कुछ कहती है )

कई दिनों से राह देखती,

मेरी आँखें पथराती,

ग्रीष्म की गर्म हवाओं से ,

भेजी थी मैंने तुमको पाती ,

तीक्ष्ण धूप से तन हुए श्यामल ,

कोई भी बात अब नहीं सुहाती ,

आषाढ़ मास अब जाने को है ,

हर पल याद तुम्हारी आती ,

हमें भूल गए तुम बादल भैया ,

जो याद हमारी तुम्हें नहीं आती ।

गाँव के लोग पूछा करते हैं ,

ताल तलैया सूख चुके हैं ,

पंक्षी कौन सा गीत सुनाएं ?

उनके कंठ अवरुध्द पड़े हैं ,

गर्मी से व्याकुल हैं सब ,

बच्चे सारे खामोश पड़े हैं ,

किसान निहारते खुले आकाश को ,

धान की पौध तैयार खड़ी हैं ,

किस- किस की अब बात लिखूं मैं?

हर और अब बस यही खबर सुनाती ,

हमें भूल गए तुम बादल भैया ,

जो याद हमारी तुम्हें नहीं आती ।

अब सावन आने वाला है ,

आशा लिए हुए हर बाल मन ,

जुटे हुए हैं तयारी में ,

किस नीम पे होगा अबके झूलन ,

सखियों ने भी शुरू किया है ,

दादरा कजरी का स्वरवन्दन ,

इसी माह आती है राखी ,

हम तुम मनायेंगे हंसी ख़ुशी ,

भूल न जाना इसी बात को ,

एक बहन रहेगी राह तकती ,

अगर तुम न आये इस सावन में ,

मेरी आशाओं पर फिरेगा पानी ,

क्या जवाब दूँगी सखियों को ,

जो यह कह कर हैं मुझे सताती ,

भूल गए तुम्हें बादल भैया ,

जो याद तुम्हारी उन्हें नहीं आती ।

जो याद तुम्हारी उन्हें नहीं आती।

-नवनीत नीरव -

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

बरसात में

बूंदों की पायल लेकर,
मग्न हो उनकी झंकार में,
बादल की डफली लेकर,
बना नया फनकार मैं,
विदा हो रही गर्मी के संग,
सावन की बारात में,
गाँव मैं बरसों बाद गया था,
भींग गया बरसात में ।

बूंदों की ऐसी धूम मची,
हर शख्श वहां दीवाना हुआ,
मेघों की छतरी लेकर,
मौसम भी तो मस्ताना हुआ,
अच्छत छींट रहा धरती पर,
वो मेहमानों की शान में,
बिजुरी बाँट रही थी सवेरा,
हर घड़ी हर पल रात में,
गाँव मैं बरसों बाद गया था,
भींग गया बरसात में ।

टप- टप करती बूंदों ने,
अलग समां बांधा महफ़िल में,
झींगुर साध रहे थे स्वर,
शहनाई संग नई बंदिश में ,
मोरों ने भी ठान रखी थी,
झूमेंगे झूलों के मौसम में,
पानी पानी गाँव हो गया,
दुल्हन के विरह अहसास में,
गाँव में बरसों बाद गया था,
भींग गया बरसात में ।

-नवनीत नीरव -

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

परदेशी

सावन में इस बार,
फिर से झमका पानी,
याद आ गई उस,
नवयवना की कहानी,
पूरे सावन बैठ झूले पर,
कजरी गाती रहती ,
परदेशी पिया की याद में ,
अक्सर खोयी रहती,
इस आशा में शायद,
परदेशी लौट आए,
फिर से उसका यह सावन
हरा भरा हो जाये।

- नवनीत नीरव -