शुक्रवार, 30 मार्च 2012

कुछ ख्वाब सिरहाने हैं



जब कभी सुबह देर से हुई मेरी,
सोचते हैं सभी,
शायद! रात देर से सोया होगा,
किसी सुबह जल्दी जगा तो,
मैं कहता फिरता हूँ,
रात नींद अच्छी नहीं आई,
जब कभी,
किसी ने उठाया मुझे तड़के,
या रात बितायी टहलते-टहलते,
हमेशा कुछ फ्लैश बैक सा चलता है.
लोग कैसे कहते हैं “पूरी नींद ली”
पर मेरी आज तक अधूरी है,
नींद की गुत्थम-गुत्थी का आलम है,
जम्हाई दिन भर दस्तक देती है,
अक्सर ऊँघता रहता हूँ,
दबी जुबां से लोग नए नाम लेते हैं, 
यद्यपि मुझे मालूम है,
आलस्य नहीं है ये सब,
ये तो मेरी युवावस्था के
कुछ सपने अन्जाने हैं,
कुछ अधूरे तराने हैं ,
नींद भले टूट जाये अलस्सुबह,
पर अभी तक,
कुछ ख्वाब सिरहाने हैं .

-नवनीत नीरव- 

गुरुवार, 29 मार्च 2012

नए शहर में ......देखिए.....



नए शहर में अपना, नया मुकाम देखिए,
कोई चाय या कोई, पान की दुकान देखिए. 

अकेला हो पेड़ तो, कोई बांध जाता बकरियाँ,
पसंद न आए फिर भी, "मंच" गुमनाम देखिए. 

आवारा फिरता है, शहर-शहर, गली-गली,
कहीं मिल जाये कोई, बंजारन परेशां देखिए. 

काम हो न हो, वक्त खर्चें इसकी चिंता में,
सुबह जगें देर से, पर मौका चर्चा-ए-आम देखिए. 

इत्तेफाक न हो मज़हब से, रखे हों “नीरव”-सा उपनाम,
अलग-थलग न पड़ें ,सो शर्मा-वर्माजी-सा नाम देखिए.  



-नवनीत नीरव-

रविवार, 25 मार्च 2012

अपना सारा आकाश


Copyright-Sunanda Sahay
सुबह का रंग,
सुरमई लाल हुआ जाता है,
एक नई भोर होने को है,
आकाश भी रंग बदलता है न !
चूड़ी-लहठी का स्पर्श,
मन में एक उमंग सी जगाती है,
और सिन्दूर की गंध,
सुबह की ठंडी हवाओं संग,
मेरे अंतर में उतर आई है.
कल तक तो ऐसा न था,
पर आज जो है,
उसने मुझे एक अपनापन दिया है. 
**********************
एक आकाश मेरा था,
बिलकुल बरसात के बाद के,
निरभ्र नभ के जैसा,
जहाँ बादलों से छन कर,
कुछ रौशनी आती थी, 
मानों दिन में कंदीलों से,
आभा फूट पड़ी हो,    
कभी नम सी , कभी शुष्क सी,
जिनको देख कर मैं हुई जाती थी,
आशावादी, स्वप्नदर्शी,
जहाँ कई बार खुदको,
लिखा था मैंने,
बड़ी ही स्वतंत्रता से,
अच्छी बातें, कल्पनाओं की उड़ान भर,
जितनी की इस धरती से उड़ी जा सकती थी,
पर हर बार यहाँ,
कुछ न कुछ छूट जाता था,
कुछ अतिरिक्त शब्द लिख देती थी,
ऊपर की लाइनों में बची जगहों में निशां बना कर,
अहसास होने पर की कुछ “मिसिंग” है.
ऐसे ही बनाया है मैंने खुद को,
खुद की भावनाओं को....
*******************
आज से तुम भी तो होगे,
मेरे साथ,
मुझे नई ऊंचाईयों पर ले जाने को,  
देखो तुम भी कुछ लिख देना यहाँ,
कोई इबारत “फूल लेंथ” की,
जैसे काली स्लेट पर कोई,
सफ़ेद खड़िया से ,
मन के उभरते भावों को उकेरता है,
मिटाता है फिर उकेरता है,
अपने विचारों से भी अवगत कराते रहना,
मैं उनको शब्द -रूप दूंगी.
फिर तुम उनको “रिव्यू” करना.
थोड़ी आलसी हूँ इस मामले में,
मन से कहाँ कर पाती हूँ “रिव्यू”.
तुम साथ दोगे तो,
हो सकता है मैं कुछ मिस न करूँ,
कुछ नया जोड़ने की जरूरत न पड़े.
चलो आज यही वादा कर दो,
मुझे ताउम्र सम्पूर्ण रखोगे.
भोर होने को है,
एक नई सुबह,
एक नया दिन,
एक सम्पूर्ण दिवस.
और अपना सारा आकाश.

-नवनीत नीरव-

गुरुवार, 15 मार्च 2012

पलायन


बरसाती मौसम में,
सुदूर अन्जाने जगह से,
नए अरमानों के लिहाफ संग,
पैसा आता है,
गंगा कछार पर बसे,
महादलित बस्तियों में,
स्वर्णरेखा के गोद में पले,
आदिवासी गाँवों में.

सूखा माहौल हरा होने लगता है,
दुःख पाँव दबाने लगता है,
खुशी सिरहाने बैठ जाती है,
इच्छाएँ जो अधूरी दबी होती हैं,
गत कुछेक महीनों से,
खुद को पूरी करने में मनोयोग से,
जुट जाती हैं.
हडिया और महुए की खुशबू से,
गांव का वातावरण पनियाने लगता है,
मांदर- ढोल की थाप गूंजती है,
फिर एक खुशी पसर जाती है.

कुछ उत्सवों के बीतते ही,
आए हुए पैसे को जाना होता है,
मानों उसे पंख लगे हों ,
क्या युवा? क्या बच्चे? क्या स्त्रियां?
युवावस्था, बचपन और इज्जत,
सभी जाने लगते हैं,
उन्हें अब जाना ही है,
आबाद होने लगते हैं,
ईंट भट्टे, कारखाने और सीमेंट फैक्ट्रियाँ,
अनजान शहर बसते हैं प्रवासियों के,
उस नए शहर के समीप, .

नई जमात जन्म लेती है,
बंधुआ मजदूरों की,
शुरू होता है,
एक मूक शोषण का दौर,
और गुजरता जाता है,
फिर सब कुछ चला जाता है.
हर बार ही यह चक्र,
खुद को दुहराता है.
शोषण,
इनकी नियति बन जाती है .  

बुधवार, 7 मार्च 2012

जेल


(तिहाड़ के एक कैदी द्वारा बनायी गयी पेंटिंग- बी० बी० सी० साभार )
एक ख़ामोशी पसरती है वहां,
कुछ दरबानों के संग,
जैसे आई जी आई के मूक से,
गार्ड्स घूमते रहते हों हर लेवल में,
एक गलत हरकत और निशाना आप,
फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है,
जैसे कुछ हुआ ही न था ....

एक भीमकाय लोहे का दरवाजा,
जो अमूमन कभी-कभी ही खुलता है,
एक विषाक्त ध्वनि के साथ,
बताने को - कोई नया मेहमान आया है,
नवागंतुक को इस बात का भान कराता हुआ,
जिंदगी आगे क्या सुलूक करेगी ?
जिसे सोच कर सिहर उठे 
हर  आने वाले की रूह,

अंदर क्या चलता है ?
आज तक जान नहीं पाया,
एक सुराक है,
गेट पर बने छोटे से दरवाजे पर,
कुछ आवाजें अंदर जाती हैं,
कुछ बाहर आती हैं,
पर कोई चेहरा कभी नहीं दिखता,
सिर्फ लोहे का मजबूत ताला,
अपनी रोनी सूरत दिखाता रहता है.
पर आँखें निस्तेज हैं उसकी.

रहस्यमयी लगती हैं,
लाल चिकनी दीवारें,
जो सामान्य घरों की चारदीवारी से,
काफी ऊँची हैं और सपाट भी,
समझ नहीं पाया था आज तक,
चारो तरफ ऊँची “बाउंडरी” क्यों बनाते हैं?
इसलिए कि यह एक स्पेस बना देती है,
अंदर और बाहर की दुनिया में,
व्यक्तिगत और सामाजिक रिश्तों में,
ताउम्र न मिटने वाला “स्पेस”........