आ चल वहीं उस पुराने शहर
में,
अपने मोहल्ले के अन्जाने
पहर में,
जहाँ देखता तुझको अक्सरहां चुपके
से,
सिमट आता दिन उस छोटे से पल
में,
तुम्हें देखने की खातिर,
नापा करता था वो
गलियां,
दिख जाती जहां तुम बेखबर,
सादगी से सुलझाती बालों की लड़ियाँ,
कभी भरी दुपहर में,
छत पे कपड़े सुखाती हुई,
शाम सहेलियों संग रस्ते में,
हँसती बलखाती हुई,
एक झलक मिलते ही,
गुजर जाता मैं आहिस्ता,
आंखें बस तकती थीं तुमको,
पैरों तले सरकता था रास्ता,
वक्त गुजरता था मेरा,
तेरी यादें संजोने-संवारने
में ....
शाम अब भी आती है यहाँ,
पर सरकती ही नहीं,
हवाएं हौले से मुस्कुराती
हैं,
पर दिल में ठहरती नहीं,
खाली-खाली अधूरे से
मोहल्ले,
गालियाँ, पार्क सभी
निठ्ठल्ले,
सिंगल स्क्रीन सिनेमा
हाल,
अक्सर सुला देता है मुझे,
नए कस्बे का अपना “एटीट्यूड”
है,
मुझे भाव देता ही नहीं,
गोलगप्पे, चाट सभी
स्वादहीन,
शहर का पानी अपना जो नहीं,
शौक जो अब तक टूटे पड़े हैं,
जमा कर रहा अपने सिरहाने
में.
-नवनीत नीरव-