बुधवार, 7 दिसंबर 2011

ग़ज़ल

खुद से करूं इजहार, मुझे मंजूर नहीं है,
पर ऐसा नहीं है कि, तुझसे प्यार नहीं है।।

अल्फाज नहीं मिलते हैं, कभी कुछ एहसासों के,
कुछ है जो आज भी, शर्मोहया के पार नहीं है।।

सीने पे रख के बोझ हमेशा, चलता रहा हूं आद्तन,
इक दर्द है चुप सा मगर, असरदार नहीं है।।

जिसने भी किया है प्यार यहां, सांसें उधार लीं,
कहां ऐसा है ये कर्ज, कभी उतारना नहीं है।।

हर तरफ़ बजते हैं, तुम्हारे आह्टों के सुर,
साजों -सामां है हरसूं, पर कोई आवाज नहीं है।।

-नवनीत नीरव-

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

जगजीत के लिए.......


चली जा ऐ गजल जमाने से,
अब कोई तुम्हारा नहीं रहा,
कहां कोई कद्रदान यहां पर,
गुनगुनाए तुझे वो आवारा नहीं रहा,
मायूसियों को पाले चंद लोग,
मिल जाते है हर शब मयखाने में,
तुझ में डूब भूले जाये खुद को,
अब वो तेरा चाहने वाला नहीं रहा।

-नवनीत नीरव-

रविवार, 11 सितंबर 2011

मुखौटे

आज पूछना चाहता हूँ,
एक बात सभी से,
अपने जानने वालों से ,
पसंद करने वालों से,
तुम मुझे कितना जानते हो ?
यद्यपि  मालूम है मुझे,
जवाब तुम्हारा...
फिर भी पूछता हूँ,
ताकि जान सकूँ,
अपनी कारीगरी पर मुस्कुरा सकूँ,
कितना छला है मैंने तुम्हें?
कितने भ्रमित हो तुम आज तक?
मेरे अनगिनत रूपों से,
मुझ जैसे बहुरुपिए से,
मेरे मुखौटे से.

किसी तरह की लज्जा नहीं है मुझे,
आज यह बताने में कि,
"मैं बहुरुपिए देश से आता हूँ"
मेरा समाज ही बहुरुपिया है,
जो कहीं न कही दबाव डाल कर,
बहला- फुसला कर,
मजबूर करता है,
मुखौटे पहनने के लिए,
अपने जैसे बनने के लिए,
एक नहीं हजार चेहरे बदलने के लिए,
भूल आने के लिए अपने मूल चेहरे,
कहीं सुरक्षित जगह पर रख कर , 
विडम्बना है कि यह विज्ञान ,
हस्तानांतरित हो रहा है पीढ़ी दर पीढ़ी .

कभी -कभी कोफ़्त सी होती है,
अपने इस मुखौटे से,
सोचता हूँ कि एक दिन,
मैं इसे उतर फेकूं,
अपना वास्तविक रूप प्रकट करूँ,
सबके सामने,
शायद मैं भी देखना चाहता हूँ,
अपना असली चेहरा,
जो बस धुंधली भावनाओं में है,
मगर कौन सा असली ?
इसी असमंजस में हूँ,
कौन पहचानेगा मुझे,
शायद कोई नहीं,
अब तो लोग मुखौटे को ही,
जानते हैं पसंद करते हैं,
हो सकता है मैं अकेला हो जाऊं,
अलग-थलग पड़ जाऊं.

उफ्फ़..............
बहुत मुश्किल है इसको उतारना,
शायद एक डर है,
बेपर्द होने का,
अपनी शख्शियत भंग हो जाने का,
सच्चाई सबको डराती है न.   
कहीं न कहीं,
यह तो मेरे व्यक्तित्व का भाग है,
झूठी इज्जत और प्रतिष्ठा का,
जो बनाई गयी है बड़े मिहनत से,
लोगों से छल कर के,
इसके उतरने के लिए    
एक लंबा इंतजार करना होगा ,
जब मेरे शरीर के साथ
मुखौटा भी जायेगा,
अपनी किवदंतियां छोड़ कर.

-नवनीत नीरव-

बुधवार, 7 सितंबर 2011

बारिशें बहुत कुछ तय करती हैं,

बारिशें बहुत कुछ तय करती हैं,
कभी सुलगती हैं, कभी बरसती हैं,
कभी किसी महबूब सी,
जिस्म छूकर गुजरती हैं
हरेक जिदगी में ही जाने अनजाने ,
अक्सरहां अपनी दखल रखती हैं
बारिशें बहुत कुछ तय करती हैं।

इक अजनबी एहसास,
नए रिश्ते की शुरुआत ,
नन्ही बूंदों की छुअन,
गीले वसन में लिपटा बदन,
धुले पेड़ों के टपकने की आहट,
किसी के भींगे आँचल की सरसराहट ,
फुसूं ता-हद्दे-नजर हरेक शय करती है।
बारिशें बहुत कुछ तय करती हैं ।

ऑफिस की आखिरी बस,
बिखरी यादों का स्वागत,
किसी के आने का इंतजार ,
मदमस्त मौसमी बहार,
किसी की गहरी उदासी,
कोई दीवारे-फ़रामोशी,
अक्सरहां चाय -पकौड़े संग खिड़कियों में कैद करती हैं।
बारिशें बहुत कुछ तय करती हैं।

-नवनीत नीरव-

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

लाशें दुस्साहस नहीं करतीं

जोखिम है,
कुछ नया करने में,
शायद यही सोचते हैं हम,
बात इतनी -सी ही है,
तो फिर क्यों सोचे हम,
कुछ बदलाव की,
अपनी पहचान की,
अमूमन यही होता है न !
पहली दफ़ा हम असफल होते हैं,
या फिर मशहूर होना,
फितरत बन जाती है हमारी,
और हम निकल पड़ते हैं,
एक नए सफर पर......
पर ये सब इतनी आसानी से नहीं मिलता,
टूटने और जुड़ने का एक दौर है चलता,
तब जा कर शोहरत दस्तक देती है।

एक लाश ही तो है,
जो निर्बाध रूप से तैरती है,
पानी की सतह पर निरंतर,
बिना डूबे, बिना किसी जोखिम के,
जिन्दा शरीर तो डूबता है,
फिर ऊपर आता है ...
फिर डूबता है....
इन्हीं मझधार की लहरों के बीच,
डूबते उतरते हुए न जाने,
कितना कुछ सिखा जाता है,
और एक नए दौर की शुरुआत होती है।
अब जरूरत है हौसले की,
जिन्दा बने रहने की,
कुछ कर गुजरने की,
क्योंकि जिंदगी इंतजार नहीं करती है,
उसको तो गुजरना है,
वो गुजरती ही है,
ये सच है कुछ ही जिन्दगानियाँ,
शोहरत की हैं इबारत लिखतीं,
ये शाश्वत सत्य है ,
लाशें दुस्साहस नहीं करतीं।

-नवनीत नीरव-

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

अलगाव

कितना मुश्किल होता है न !
खुद को एक -दूसरे से अलग करना,
जिद और अहम जो न करायें,
हर बार की तरह विश्वास था,
सब कुछ सामान्य हो जायेगा,
तुम लौट आओगी,
पर वो टूट गया,
सिर्फ एक टीस ही है जो अक्सरहां,
तुम्हारी याद दिलाती है,
अलगाव में दर्द,
सिर्फ एक को ही नहीं होता.

कभी हमारे ह्रदय मिले थे,
तभी तो शुरू हुआ एक रिश्ता,
ये और बात है कि,
मन नहीं मिल पाए,
सोच समझौता न कर सके,
और आखिरकार,
रिश्तों की डोरियाँ,
आहिस्ता से तोड़ दी गईं.

झटके से तोड़ने की कोशिश की थी हमने,
पर वो असह्य था,
हालाँकि यह भी कुछ कम नहीं,
जुड़ी चीजों को उखाड़ने से,
अधूरा सा लगता है न !
एकदम सूना -सूना सा,
कुछ में तो स्थायित्व भी आ गया था,
सच बताऊँ दर्द तो मुझे भी हुआ है,
उतना ही दर्द,
जितना तुम आज महसूस करती होगी.

- नवनीत नीरव-

बुधवार, 13 जुलाई 2011

सूनी गलियाँ और मैं

ये सच है कि कोई नहीं तकता,
इन गलियों में आजकल मेरा रस्ता,
ये गलियाँ फिर से सूनी हैं,
मैं फिर से अकेला,बेचैन-सा उसी तरह ,
जैसे कोई बादल भरी रातों में उमस संग,
ये कारगुजारियां मेरी ही हैं,
जो आज एक स्याह सन्नाटा पसरा है .
तुमको हल्के में लिया,
यही है मेरी खता,
समझता रहा कम अक्ल ,
यही है मेरी गिला,
कोशिश थी एक रिश्ते को,
कोई मुकाम देने की,
अनजाने हमसफ़र को,
अपनी पहचान देने की,
मैं ईमानदार था इसे लेकर,
पर कौन मानेगा इसे आजकल,
तुमने भी न माना,
विगत वर्षों में न पहचाना,
सबको छोड़ मैं भी तो,
हो लिया था तुम्हारे संग,
रास्ता सीधा नहीं था ,
पर आदतन मैं था तंग,
तुमको हल्के में लिया,
रिश्ते को यूँ ही चलने दिया,
क्या पता था कि ये गाड़ी,
सिर्फ प्रेम पर नहीं चलती,
विश्वास और ख्याल भी चाहिए इसे,
हालात अब ये है कि,
न तुम हो, न ही है अब हमारा रिश्ता,
जैसे राह ही भटक गई मेरी,
भटके हुए मुसफिर के मानिंद,
खोजता फिरता हूँ गर-बदर,
लेकर तुम्हारा नाम -पता,
इधर -उधर ,हर तरफ, हर पहर,
जबकि यह जनता हूँ ,
अब तुम न रखोगी मुझसे कोई रिश्ता,
ये सीधी गलियां अब सूनी ही रहेंगी,
और अब यहाँ कोई नहीं तकेगा मेरा रस्ता.

गुरुवार, 16 जून 2011

आ जा ओ बदरिया


आ जा ओ बदरिया,

आके बरस हमरी अटरिया,

गरमी से अकुलात हैं,

हमरे प्यारे सांवरिया,

हरदम चिचियात हैं बेवजह हमपे,

चैन न उनके कौनो पहरिया.

मुन्नू और लाली हमके गोहरावे,

सही न जात है उनसे गरमिया,

एही से बुलाती है तुम्हारी इ बहना,

सुन लो अब एक बार हमारी अरजिया ।

जा बदरिया...........


तलवा-तलैया सूख गइन हैं,

दहकत हैं सब गाँव की डगरिया,

हर जगह गाँव में तुम्हरे ही चर्चा है,

चौपाल हो, बागीचा हो, या हो मंदीरिया,

भईया किसान सब तुम्हरे भरोसे,

हर साल बर्बाद होवे उनकी किसनिया,

भला परदेस जाके का कोई कमाई,

जब छूछे रहे आपन गाँव- नगरिया,

हरदम पूजा बरत सबे करत हैं,

काहे न सुनत तुम उनकी विनतिया ।

आ जा ओ बदरिया.........


कासे बुलाऊं अब समझ न पाऊं,

हम तो ठहरी गाँव की गुजरिया,

पर एक बात साच जो तुमसे कहत हैं,

समझो तुम इसको हमरी मरमिया,

तीखे धूप में ढलती चलल जात है,

इठलाती मोरी बारी उमरिया,

अइसन सुना है गाँव के पुरनिया से,

विपदा में मदद देत गोतिया-बहिनिया,

एही से बुलाती है तुम्हारी इ बहना,

सुन लो अब एक बार हमरी अरजिया ।

जा बदरिया..............


-नवनीत नीरव-

गुरुवार, 2 जून 2011

ये खुली जगह जहाँ मैं रहता हूँ .......

ये खुली जगह जहाँ मैं रहता हूँ,
यूँ कहें कुछ अजीब सी लगती है।
गौरैयों के झुण्ड चहचहाते हुए,
अक्सर जगा जाते हैं हर सुबह,
समीप के पहाड़ी से छन कर आती,
झीनी सूरज की किरणें तैयार करती हैं,
आलस छोड़ काम पर जाने के लिए,
पास के मंदिर से आती घंटियों की रुनझुन,
मन में जगाती हैं भाव वंदन का,
जो शायद भूल चला था मैं बड़े शहरों के प्रभाव में,
पास के ढाबे में ज्यादा कुछ तो नहीं मिलता,
पर हाँ घर के खाने जैसी खुशबू आती है,
कभी- कभी उसकी रोटियों से।
इस गर्मी की भरी दोपहरी में

सुनसान सड़क पर मुझे ,
छाया देने की खातिर ,
अक्सर बांहें फैला देते हैं अनगिनत पेड़,
ममता की आंचल फैलाती हैं उनकी डालियाँ।
रात को सोते वक्त पास में खड़े आम के कुछ पेड़,
इस तरह पहरेदारी करते हैं,
जैसे मेरे अभिभावक हों,
उनकी मंजरियाँ और पत्तियां,
रात को धीमे -धीमे कोई गीत गुनगुनाती हैं,
यहाँ गुजरने वाली पुरवाई के संग
मुझे अपने प्यार की थपकी देती हुई।
हाँ, ये जगह जहाँ मैं रहता हूँ,
थोड़ी अजीब है,
पर अब मेरे दिल के काफी करीब है।


- नवनीत नीरव -

गुरुवार, 5 मई 2011

बिंदियाँ


लाल हरी नीली पीली,

चमकती हैं बिंदियाँ,

गोरी के माथे पर,

जब सजती हैं बिंदियाँ।

सूरज-सी गोल-गोल,

चंदा-सी आधी,

टेढ़ी-मेढ़ी मछली सी,

जो लगती है प्यासी,

अनगिनत रंगों और,

आकृतियों में ढलकर,

मिलन की हमेशा,

चाह जगाती हैं बिंदियाँ।


आलते और कुमकुम संग,

बचपन के श्रृंगार सी,

अच्छत रोली काजल संग,

अम्मी-दादी के दुलार सी,

सिंथेटिक वाल्वेट संग,

किसी नए फैशन सी,

प्रियतम के चाह में,

नैनों के दर्पण सी,

ढलती हुई उम्र में,

हल्के हुए रंगों सी,

अलग-अलग भाव में,

कुछ नयापन ले आती हैं बिंदियाँ।


-नवनीत नीरव-

बुधवार, 4 मई 2011

ख्वाब नगर

बचपन से अब तक,

न जाने कितने किस्से, कहानियों,

और काल्पनिक बातों को लेकर गुजरा हूँ।

कुछ अद्भुत अनोखे ख्वाब,

कभी हंसाते और गुदगुदाते ख्वाब,

अब तो कहने लगे हैं सभी,

मेरी अपनी दुनिया है आजकल।

क्यों कहते हैं सभी ?

मुझे नहीं मालूम,

सिर्फ इतना ही समझ आता है कि,

एक आवरण सा बना लिया है,

अपने चारों तरफ मैँने,

विगत कई वर्षों में।

अब तो हकीकत है कि,

हकीकत भी नजरें चुराती है मुझसे ।

अक्सरहां दोस्त कहते हैं,

समय के साथ चलो,

अब तो खुद को बदलो,

तभी है तुम्हारा अस्तित्व।

मुझे तो केवल,

कुम्हार का वो चाक,

जिसपर मिट्टी का एक लोंदा पड़ा होता है,

घूमता नजर आता है।

कुम्हार अपने सधे हाथों से,

मनचाही आकृति बनाता है,

कुछ ऐसी आकृति जिसकी कल्पना,

मिट्टी के लोंदे ने की ही नहीं ।

जब वह खुद को हवाले कर रहा था,

सोचा था,

चलो समझौता कर लेता हूँ,

जिंदगी तो गुजर जायेगी।

कुछ अच्छे दौर भी आते हैं,

जिनमें वह खुद को सही ठहराता है।

स्वतंत्र और स्वछंद अलग-अलग बातें हैं,

जिसमें स्वयं के लिए सोचते हैं,

खुद के लिए जीते हैं कुछ पल,

और यहीं से उसका हश्र बुरा होता है,

जब बदलना चाहता है वह,

खुद के आस्तित्व को,

पर बदल नहीं पाता,

एक दायरे में वह पक चुका है अब,

जो स्थायित्व देता है।

खुद को खुद के लिए बदलने की जद्दोजहद,

एक आंतरिक उथल-पुथल को जन्म देती है,

एक संघर्ष ,

आस्तित्व के लिए,

जो खत्म होता है,

उसके टुकड़े-टुकड़े होने से,

मिट्टी में मिल जाने से।

शायद सभी के साथ होता है ये,

जब आप तैयार करते हैं खुद को,

दूसरे के अनुसार बदलने के लिए,

जीवन-पर्यन्त तो आपका,

कोई आस्तित्व नहीं रह जाता है।

वजह यही है कि,

मैंने रची है अपनी दुनिया,

आभासी किन्तु अपने ख्वावों की,

जिसके प्रतिबिम्ब समय के साथ,

शायद गहरे हों।

कोशिश तो जारी है,

नए ख्वावों के नगर की,

जहाँ उन्हें देखने वालों को,

एक सम्मान मिले ताकि,

वो खुद के लिए जी सकें,

उनको कार्यरूप में परिणत कर सकें.

-नवनीत नीरव-

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

कुछ गुमशुदा सामान

हर सुबह ढूंढा करता हूँ मैं,

ऑफिस की चाबियाँ, पर्स, घड़ी,

और न जाने कुछ-कुछ,

थोड़ी देर बड़े संयम से,

खोजता फिरता हूँ इधर-उधर,

अपने दिमाग को रिवाइंड करते-करते,

हाँ, शायद यहीं रखा था मैंने,

फिर थोड़ी हडबडाहट से,

भागता फिरता हूँ बीतते समय को देख,

शायद आज ऑफिस के लिए,

लेट न हो जाऊँ.

घड़ी जो अब तक सुबह से ही,

अलसाई थी अचानक ही,

तेजी -सी आ जाती है उसमें,

और हताशा मुझमें,

कभी किताबों की शेल्फ टटोलता हूँ,

कभी बेड के तकिए उलटता हूँ,

कभी सोफे की दरार झांकता,

या फिर मेज पर अख़बार खंगालता.

एक सामान की खोज में,

न जाने कितने खोये सामान मिल जाते हैं,

जिसको भूला था मैंने पिछले हफ्ते,

ढूँढने -टटोलने के क्रम में,

खुद पर खीझते हुए,

कभी पश्चाताप से, कभी खेद जताते हुए,

बडबड़ाता हूँ मैं ,

और न जाने कितने सामान बिखेर जाता हूँ,

यार! मैं इतना भूल्क्कड़ कैसे हो गया?

पहले तो मैं ऐसा नहीं था,

कई बार तो ऐसा भी होता है,

सामान सामने होते हैं और दिखाई नहीं देते,

मन तो ऑफिस के रस्ते की

ट्रैफिक पर फँसा होता है न!

और फिर वो मिल जाता है,

जो शायद गुमां नहीं था.

पहले अफ़सोस करता हूँ,

फिर शर्मिंदा होता हूँ,

एक नजर दौड़ाता हूँ,

दीवार पर टंगी मुस्कुराती घड़ी की ओर,

जो कह रही होती है,

जाओ आज छोड़ दिया तुमको,

एक लंबी साँस लेकर,

हल्का करना चाहता हूँ खुद को,

फिर कमरे से बाहर निकल जाता हूँ.

और बिखरे सामान वैसे ही पड़े होते हैं,

जिनमें मुझे कल फिर खोजना होगा,

कुछ गुमशुदा सामान.

-नवनीत नीरव-