शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

कहो सखि आज कहाँ से लाऊं मैं अपने गुलाल..


(जो गीत मैंने रचा है उसकी प्रासंगिता कहाँ तक है ये तो मैं नहीं जानता. कहीं मैंने होली के बारे में कुछ पढ़ा था जिसमें लिखा गया था कि “ गाँव एक सात्विक राग था ,जिसे सब मिलकर गाते फागुन में ,चैत्र में,पीड़ा में, उल्लास में, पतझर में और मधुमास में. सबका अलग-अलग रंग होता था लेकिन होली में मिलकर सब एक हो जाता था. सब रंगों को शहर ने सोख लिया. गाँव जब मिटकर शहर हो जाता है तब दो ही रंग रह जाते हैं- काला और लाल. काले में समाकर सभी रंग काले हो जाते हैं और उनसे लड़ता है लाल रंग. लेकिन धीरे धीरे वह भी काला हो जाता है. इस होरी के माध्यम से एक कोशिश की है मैंने लाल रंग को जीवित रखने की. एक आह्वान है ये ...)  

कहो सखि आज कहाँ से
लाऊं मैं अपने गुलाल,
रंग हो ऐसा जो दिल में समाये,
कर दे जहाँ रंग लाल .
कहो सखि आज कहाँ से..................

टेसू के रंग सा, महुए की गंध सा,
प्यार में डूबे, सुवासित बसंत सा,
रंग दे जो मन के मलाल.
कहो सखि आज कहाँ से.................

फागुन संग चैता भी खेलेंगे होरी,
झूमेगी बाला, गायेगी किशोरी,
अंग से लगा रंग लाल.
कहो सखि आज कहाँ से ..............

आओ हो रंगरेज, गाएं जोगीरा,
फाग से मदमस्त भए अब कबीरा,
तन-मन करें सबके लाल.
कहो सखि आज कहाँ से................

- नवनीत नीरव -