शनिवार, 5 सितंबर 2009

तस्वीरें

(आज टीचर्स डे पर ये कविता मैंने पढ़ी)
इक सोच मेरे मन में,
यूँ ही जाती है ,
दिल में दबी यादों पर,
दस्तक दे जाती है,
इक ट्रैफिक-सा चलता है
घटनाएं एक- एक करके आती हैं,
भीड़ में अकेला होता हूँ मैं,
वे शोर करती गुजर जाती हैं

मैं सोचता हूँ अक्सर,
कि शायद आप भी सोचते हों,
जब बीत जायेंगे सारे चेहरे,
सिर्फ़ यादें ही तो रह जायेंगी,
दीवारों पर टंगी तस्वीरों जैसी,
हंसती मुस्कुराती सी,
या फिर उस कैलेंडर की तरह,
जिसे हर साल बदल देते हैं
या फिर एक अल्बम के,
कुछ पुराने पन्नों में ,
जिनमें आप गुजरे क्षणों को,
महसूस करने की,
असफल कोशिश करते हैं,
हर उस घटना को,
जिससे आप जुड़े थे,
पिछले टीचर्स डे की शाम,
या उस दिवाली की रात को,
जब मिलकर हमने,
इसी इमारत में,
खुशियों के दीये जलाये थे,
इक कोशिश की थी,
मिलकर अंधेरे को भगाने की
आज इमारत तो वही है,
पर कुछ लोग नहीं रहे (सीनियर्स)।
कुछ नाम कुछ किस्से,
अभी स्मृतियों में शेष हैं,
कि जिन्हें अगले वर्षों में ,
आप और हम भी भूल जायेंगे,
फिर यही हमारे साथ भी,
दुहराया जाएगा

दर्द तो होता है,
कि जब आँखें बंद करता हूँ,
पिछले सितम्बर की,
वो बारिश याद आती है,
जब ढेकनाल के हरे खेतों के बीच,
आप और हम भींग रहे थे
(ढेकनाल = उडीसा का एक जिला जहाँ पिछले साल हम ट्रेनिंग के लिए गए थे ।)

कभी सोचता हूँ,
अपने हॉस्टल की सारी
खिड़कियाँ खोल कर,
खूब सारी धूप इकट्ठी कर लूँ,
हर बीतीं यादों की,
एक एल्बम बना लूँ,
मगर असफल रहता हूँ,
क्या करुँ ?
मेरी अपनी सीमाएं हैं
कितना अजीब है ,
होकर भी नहीं होने की कल्पना करना

पर कभी कभी मन,
बेचैन हो उठता है,
लगता है दिल में,
सांसें उलझ रही हैं,
आंखों पर अँधेरा सा छाता है,
लगता है कोई पुकार रहा हो,
क्या होगा?
जब साथ होगा आपका,
(मेरी प्रेरणा तो आप ही हैं )
अपने दोस्तों का,
और कुछ यादों का,
जो यहीं रह जायेंगी

खैर जाने दीजिये,
अभी जाने के दिन दूर हैं,
अभी कुछ बीजों का,
अंकुरण(फ्रेशर्स) हुआ है,
चलो क्यों हरी घास पर,
हँसी के कुछ पुराने सिक्के ढूंढे,
अपनी फटी जेबें सिल लें,
"फटी हो जेब तो नए सिक्के भी खो जाते हैं "
शायद इसलिए,
इक सोच मेरे मन में,
यूँ ही जाती है,
दिल में दबी यादों पर,
दस्तक दे जाती है

-नवनीत नीरव-