शनिवार, 6 सितंबर 2014

कुछ अपनी...कुछ उसकी


अपनी मनमानी,
उसकी नादानी,
लरज जाती बेदम,
रिश्तों की तानी...

अपनी तुनकमिजाजी,
उसकी बेपरवाही,
तोड़ती सीमाएं,
लफ्ज़ों की आवाजाही...

अपनी चुप्पी,
उसकी ख़ामोशी,
डूबते साए,
अपनी-अपनी आजादी...

अपनी खिसियाहट,
उसकी मुस्कुराहट,
गुत्थम-गुत्था साँसें,
भींगते पाजी...


-नवनीत नीरव-

सोमवार, 4 अगस्त 2014

शरारत

सुबह- सुबह जब सोकर उठा,
बारिश की हल्की फुहारों ने,
मेरे सारे बर्तन भिंगो दिए थे,
जिन्हें अमूमन छोड़ आता हूँ आँगन में,
रात भर चंदा संग बरजोरी के लिए.

छत पर टहलते वक्त महसूसता रहा,
पैरों तले जमीन अभी गीली थी,
और चंद फ़ाहे लटके हुए थे,
औंधे आसमानी स्लेट पर.

घर के पिछवाड़े तन कर खड़ी पहाड़ी ने,
लगता है तड़के ही उठकर,
धोया था अपना चेहरा,
हरे-भरे पेड़ शायद इंतजार में थे,
कुछ आवारगी कर गुजरने के लिए.


तभी कुछ हवाबाजी हुई,
हवा में घुली ठंडक ने,
बदन के सारे रोंये खड़े कर दिए,
पर घटाओं ने मुंह मोड़ लिया,

एक रिश्ता था,
जो बनते-बनते ठहर गया,
एक मौसम था,
जो शरारत करते-करते रह गया...

-नवनीत नीरव-

शनिवार, 26 जुलाई 2014

हत्यारा

पूरब से निकलता हुआ,
सूरज,
चुग जाता है,
भोर की एक-एक तारिकाएँ,
जब्त कर लेता है,
नक्षत्रों की उधार ली हुई चमक.

संवेदनशीलता एक दायरे तक,
बच पाती है नर्म-मुलायम,
उसके बाद चाहे,
कितना ही फिरा लो,
ठंडी-गर्म छुरियां,
बटर की दरो-दीवार पर.

रेगिस्तान में भटकते,
बंजारे को,
बड़ी बेरहमी से मार डालता है,
उसका अकेलापन,
किस कदर ख़तरनाक हो सकती है,
संवादहीनता.

अपने सपनों, उम्मीदों, अरमानों के,
अक्सर गले रेतता मैं,
बड़े इत्मिनान से,
फेरते हुए छुरे,
हर रात,
जब कुछ पल बेरहम हो जाते.

सूरज, मौसम, रेगिस्तान, रात
जब सब कुछ ठीक है,
अंदर एक बेचैनी 
लगी रहती है, 
तोड़-फोड़, नष्ट, कुरूप करने की,
एक लालसा,
पल-पल पलती है.

- नवनीत नीरव -

सोमवार, 14 जुलाई 2014

गाँव अभी ले, ना अईल∙ बुद्धन


(एक माँ का अपने बेटे के लिए सन्देश. जो मुम्बई में कमाने गया है. पैसे नियमित रूप से भेजता है गाँव पर,लेकिन पिछले चार-पाँच सालों में एक बार भी घर लौटा नहीं है)

बम्बे गइल,उहें के भइल,
गाँव अभी ले, ना अइल बुद्धन,
पइसा वइसा मिले समय पर,
बाकि चाहत रहीं तोहर दरसन,
अइसन नोकरी के का फ़ायदा,
छोड़वा देवे जे गाँव-आंगन,                 
छोड़ के इहवां के आपन मेहरारू,
का उन्हे जोड़ लेल गेठबंधन...?
(१)
कच्चा आंगन से गइल रह तू,
अब त पक्का घर बा,
अधिया, तीसरी करत रहल,
अब आपन बिगहा भर बा,
माड़-भात आ दाल खेसारी,
एकरा से जादे का पइत,
झींगा, गरई, रोहू, पोठिया,
आहर उबीछ के लेअइत,
तहरे करम पर मिल जाता अब,
कबो-कबो कुछ चिकन-चाकन,
बम्बे गइल, उन्हें के भइल,
गाँव अभी ले ना अइल बुद्धन...
(२)
आंगन में के तोंत काट के,
जगह फ़ैल कर देनी जा,
बैलन के सब नाद चरन अब,
घर के पिछुती ठेल देनी जा,
शाम के आपन दलानी में,
अब केहू ना आवे जावे,
झूठ-मूठ लालटेन ससुरा,
टंकी भर तेल पी जावे,
अबके पैसा भेजत तब,
छत प कोठरी बनवा दिहती,
डिश संगे रंगीन टीभी,
ओकरे में लगवा दिहती,
अइसन कौनो एस्कीम देखत,
सोलर पलेट से होइत चमचम,
बम्बे गइल, उन्हें के भइल,
गाँव अभी ले ना अइलअ बुद्धन...
(३) 
पहिले गाँव में नाली बहित,
अब बहेला सगरी नाला,
गली-नाली, कोली खातिर,
बात-बात पर निकले भाला,
झगरा झंझट होला हरदम,
लाठी-गंडासी भंजाये हरदम,
केहू साला-साली कहे,
केहू माई बहिन गरियावे,
डर लागेला कहीं कौने बात पे,
रायफल-पिस्टल ना चल जावे,
आदिम भइल अब राकस इहवां,
बिगड़ल गाँव इहे लच्छन,
बम्बे गइल, उन्हें के भइल,
गाँव अभी ले ना अइल बुद्धन...
(४)
सोचत रहीं अबकी बारी,
तीरथ दरसन सब कर लिहतीं,
सोनपुर के मेला से,
बाछा बैल मंगवा लिहतीं,
छोटका के अगुवा आवेला,
पर हमनी के उ ना एक सुनेला,
दिन-दिन भर तास पीटे अब,
लबनी भर-भर ताड़ी पियेला,
कैसहूँ उ बी०ए० कर जाइत,
पराइमारी मास्टरी में लग जाइत,
बियाह सादी सब छुट्टी करके,
इत्मिनान भईल चाहीं हम,
बम्बे गइल ,उहें के भइल,
गाँव अभी ले, ना अइलअ बुद्धन,
(५)
कब्बो कब्बो सुनत रहनी,
समय उहाँ के भारी बा,
सब बाहर वाला लोग के,
वापस भेजे के तैयारी बा,
अइसन काहे करे सब,
इ बात समझ न आवे हमरा,
मेहनत मजूरी से सब पेट पोसे,
फिर काहे के इ झंझट झगरा,
सोचत रही तू लौट अब अइत,
इहवां दोकान दउरी कुछ कर लेत,
एही बहाने छोटके के कुछ,
काम-काज धरा लिहत,
दूर-देस परदेश कभी ना,
आपन जइसन लागेला,
जैसे बूढ़ पूरान सुग्गा,
पोस कभी ना मानेला,
सोच विचार ल ठोक ठठाके,
फिर लीह आपन डिसीजन,
बम्बे गइल ,उहें के भइल,
गाँव अभी ले, ना अइल बुद्धन.
-नवनीत नीरव-


सोमवार, 23 जून 2014

स्मृतियों में प्रेम

मांग लाया था वापस,
अपनी बातें,
अपने वादे,
अपना सबकुछ,
जो कभी  उसकी चाहत थे.

अदला बदली,
हमेशा सुखद नहीं होती,
कुछ पलों में जीते हुए,
पता भी नहीं होता,
कि सांसें गिरवी हैं.

जो अपना था,
वो कभी खो नहीं सकता,
भले ढूंढते रहे हम,
अपने दिल समन्दर में,
यादों-बातों में.

कोई क्यों जरूरी होता है?
महसूसता हूँ,
उसके चले जाने के बाद,
कि शायद कभी उसको,
मेरी तलब लगे.

-नवनीत नीरव-

रविवार, 22 जून 2014

सिलवटें

सिलवटें,
गुजरे पलों की, 
अगर छू भी जाएँ,
एक दर्द सा सिहरता है,
और हम, 
रखकर एक हाथ
अपने दिल पर,
एक बंद आँखों पर,
औंधे हुए हैं बिस्तर पर,
वक्त की कीलें बहुत नुकीली हैं,
चुभ जाएँ तो खून नहीं निकलता,
सिर्फ आह निकलती है...

नवनीत नीरव

बुधवार, 18 जून 2014

आँखों देखी- कथा एक विद्यालय की


केर और बबूल के झुरमुट से घिरे,
एक अदने से गाँव के,
एक गुलाबी भवन में खड़ा हूँ,
जहाँ बच्चे-बच्चियां तैयार हो रहे हैं,
अपने दक्षता की माप के लिए
यह कोई साधारण स्कूल नहीं है,
यह शाला है,
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भरने वाले एक देश के,
सबसे बड़े भूभाग वाले राज्य के,
छियालीस प्रतिशत साक्षरता वाले एक जिले के,
सबसे पिछड़े प्रखंड के एक गाँव में.

बच्चे बड़े मनोयोग से पेन्सिल छीलते हैं,
चंद हफ़्तों में देश का भविष्य बदलने के लिए,
लिख देने के लिए सुवर्ण अक्षरों में,
देश का भविष्य,
बदल देने के लिए कुछ व्याप्त घटनाओं के,
काल क्रम और मायने,
जो कुछ भी सीखा है अभी तक,
अपनी अभागी किस्मत के भाग्य से,
मैं बांटता हूँ कॉपियाँ,
समझाता हूँ निर्देश,
ठीक वैसे ही,
जैसे आजकल एक बड़े पार्टी का बड़ा नेता,
तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर,
बड़ी-बड़ी सभाओं में करता है कुचरई,
गले से भरता है हुँकार.

थोड़ी ही पल में महसूस करता हूँ,
बच्चों को चाहिए नेह, दुलार,
मीठी-मीठी बातें,
जो उन्हें हो स्वीकार,
फिर शुरू करता हूँ फंसे गले को साफ़ करते हुए,
कोसते हुए उनके स्कूल, उनकी किस्मत को,
कर जाता हूँ हर सीमाएं पार,
किसी को भी नहीं छोड़ता,
जैसे आजकल एक नयी पार्टी का नया नेता,
खसखसाये गले से चिंघाड़ता है,
दिखाता है अपने छलावे-दावे,
ये बातें सचमुच असर करती हैं,
देखता हूँ बच्चों की पेंसिलें चलें लगी हैं
अब मेरा काम हो जायेगा,
कुछ भी लिख देंगे बच्चे,
तो सफल हो जायेंगे मेरे निर्देश,
कोई सवालात तो नहीं करेगा
कि ये कॉपियाँ खाली कैसे रह गयीं?

कक्षा में टहलते-टहलते,
चला जाता हूँ अपने बचपन की कक्षा में,
जब सारी कहानियां अच्छी लगती थीं,
सभी महापुरुष भले लगते थे,
तब न कोई कम्युनिस्ट था न ही फासीवादी,
न कोई लेखक ब्राह्मण था न कोई आदिवासी,
भली दुनिया थी तब,
अब तो पाठ्यक्रम हर साल बदलते है,
नए च्वाइस वाले महापुरुष,
हर साल जुड़ते हैं,
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल नाम की है,
विश्वास नहीं है!
तो एक कार्टून बना के देख लो.
क्या लेखक क्या पत्रकार,
सभी मतलबी हैं,
जिनकी तटस्तथा अब मुलतबी है,

एक लेखक है,
साठ की उम्र में अभी भी देश के,
एक विश्वविद्यालय में ही है
जो देश में रहते हुए भी,
खुद को अंतर्निवासित समझता है,
देता है बड़ी-बड़ी दलीलें,
बोलता है केवल संवेदनशील मुद्दों पर जानबूझ कर,
सबसे ज्यादा अनुवाद उसी की किताबें हुई हैं हिंदी की,
हर बार हर मंच से बोलता है,
आज कल एक ही नेता के पीछे पड़ा है,
उसके पात्र इसलिए ही पैदा लेते हैं,
कि उनको बेमौत सड़क पर रोलर के नीचे आकर,
दम तोड़ना होता है,
लिखना अब इसलिए है कि विवाद जन्म लें,
कुछ बड़े सम्मान मिल जाएँ,
एक पंथ ही इनको समझ में आयें,
अच्छा है कि इन बच्चों ने इनकी कहानियां नहीं पढ़ी हैं,
क्योंकि इन्होने कुछ उनके लिए लिखी कहाँ,
बड़े लेखक के खोखले दावे,
ये बनाएं के देश के मजबूत इरादे.

देखता हूँ कि बच्चे फिर बैठ गए,
अब ये बड़ा नागवार गुजरता है
मन में एक खीज सी उठती है,
“एक दम गोबर हैं सब...”
ऐसे कुछ विचार पनपते हैं,
मैं चाहता हूँ उनपर नियंत्रण करना,
लेकिन सबकी अपनी सीमाएं होती हैं,
चार किताबें गांधी दर्शन की पढ़ने से,
नहीं हो सकता कोई गांधीवादी,
अपने गुस्से को दबाते हुए मैं फिर से,
जोर से पढ़ता हूँ निर्देश,
आवाज अचानक से तीख़ी हो जाती है,
बच्चों के मन अभेद्य हैं,
जोर जबरजस्ती उन्हें तोड़ देती है,
और “ड्रॉप आउट्स” बढ़ते जाते हैं,
अपने हिंदुस्तान में.  

थोड़ी देर में प्रयास बंद कर देता हूँ,
सोचते हुए,
इनकी यही किस्मत है,
इनका कुछ नहीं हो सकता,
मैं इससे ज्यादा क्या कर सकता हूँ,
कक्षा में, बालकनी में इधर उधर टहलता हूँ,
बच्चे अभी थोड़े शांत हैं,
कुछ लिख रहे हैं,
एक दूसरे की कॉपियों से नक़ल करते हुए,
कुछ लिखना जो उन्हें हैं,
बिना कुछ समझे विचारे,
सोचने समझने की इजाजत जो उन्हें नहीं है.

समय पूरा हुआ है,
बच्चे कॉपियाँ जमा कर रहे हैं,
हँसते-मुस्कुराते बच्चे,
टूटे दांत वाले लड़के,
लाल रिबन वाली लडकियाँ,
उनके चेहरे पर एक संतोष है,
कुछ मेहनत जो किया है उन्होंने,
मुझे भी संतोष हुआ है कि
“चलो अपनी ड्यूटी तो पूरी कर ली”

सरकारें तय करती हैं 

कि वो कितनी सफल हैं,
कितने प्रतिशत साक्षर हैं,
कितने बच्चे पांचवी में पढ़ते हुए,
हल नहीं कर पाते पहली की गणित...
मैं तो मात्र हिस्सा हूँ उस सिस्टम का,
जो न तो किसी को जीने देता है,
और जहाँ न तो स्वेच्छा से मरने की इजाजत है...
मकसद साफ़ है,
खड़ा करना चाहते हैं,
मजबूर और भ्रमित लोगों की भीड़,
ताकि चलती रहे लोकतंत्र की दुकान. 
बच्चे कुछ तो समझते हैं,
मसलन कोई नया आया है
तो अच्छा ही होगा,
सो खड़े हो आपका करते हैं स्वागत,
आपके इर्द गिर्द स्नेह से मंडराते हैं,
बोलते बतियाते हैं हिचकते-मुस्काते,  
ऐसे ही करोड़ों बच्चे मुस्कुराते रह जाते हैं,
और ड्यूटी करने वाला उनके नाम पर,
अपनी तमाम उम्र गुजार देता है.

-नवनीत नीरव-