शनिवार, 26 जून 2010

मजदूर

हर रोज सुबह –सुबह,
चौराहे पर दिखता है वह,
बड़ी ही बेचैनी से,
बार –बार मिन्नतें करते हुए,
साहब! मुझे मेरे पैसे दिला दो.

वह न जाने कब से आ रहा है,
दिन भर गुजारिश करता है,
फिर वापस लौट जाता है,
कुछ और नहीं सुन पाया मैं,
आज तक सिवाय इसके,
साहब! मुझे मेरे पैसे दिला दो.

हर सुबह उसके चेहरे पर,
एक चमक -सी होती है,
जो दिन के साथ,
फीकी होती जाती है,
ज्यों –ज्यों पहर गुजरता है,
निवेदन आग्रह बन जाता है,
और शाम ढलते ही उसकी आशाएं,
अस्त हो जाती हैं,
बड़ी मुश्किल से रुंधे गले से,
एक अंतिम आग्रह करता है,
साहब! मुझे मेरे पैसे दिला दो.

आज वह हताश है,
आँखें बुझी-बुझी सी हैं,
शायद जगा हुआ है रात भर,
कुछ सोच रहा है,
कि आज खुद का सौदा कर देगा,
किसी बड़ी कम्पनी के बिचौलिए के हाथों,
कुछ महीनों के लिए,
भले ही घर छोडना होगा,
कम से कम पैसे तो आ जायेंगे,
घर की जरूरतें तो पूरी होंगी,
वह बेबस तो नहीं होगा ,
बच्चों और परिवार के सामने,
और बार-बार घिघियाना तो न पड़ेगा,
साहब! मुझे मेरी मजदूरी के पैसे दिला दो.

बुधवार, 23 जून 2010

बारिशें और तुम

मन की आँखें मूँद रहा है,

आंसू कतरा- कतरा तोड़ रहा है

किरणों के सीधे बाणों से,

तन को निर्दयी भेद रहा है,

क्या हाल हुआ जाता है?

इस बार की,

चौंधियाने वाली गर्मी से.

बदन लाख कोशिशों के बावजूद,

शिथिल पड़ जाता है,

असह्य व्याकुल हो गर्मी से,

अब तो यही ख्याल आता है ,

कुछ ऐसा होगा फिर से,

जब कुछ पुरानी कहानियां,

फिर से दुहरायी जायेंगी,

अबके वो बारिशें फिर से आयेंगी,

मन के अरमानों की दूब हरी कर जायेंगी

ठीक वैसे ही

जैसे तुम

आते आते चली आयीं थीं

मेरे इस नग्न पहाड़ों से जीवन में,

जहाँ सूखे दरख्तों की कतारें,

न जाने कब से इंतजार में थीं

किसी आने वाले अनजाने मुसाफिर के,

कि जिसका पता हर रोज पूछा करती थीं

वो आने वाली गर्म थकी हवाओं से ,

कई लोग आते रहे थे

मेरी जिंदगी में अक्सरहां,

जो पहाड़ों के शौक़ीन थे,

पर कभी इस वीराने में न टिक पाए,

सहसा तुम चली आयीं

हवाएं अचानक नम हो गयीं थीं

मौसम ने शायद आखिरी तैयारी की थी

तुम्हारे लिए,

भला कब तक कोई,

बिना किसी फायदे के,

मुसाफिरों का स्वागत करे.

सब कुछ तो बदल गया था,

एक चमक सी आ गयी थी

जब तुम आयीं,

और आते ही बिखेर दी थीं,

कुछ बूंदों कि लड़ियाँ तोड़ कर

अपनी जुल्फों से,

एक सोंधी -सी मिट्टी की महक,

सांसों में भर आयीं थी मेरी,

जिन्हें आज तक महसूस करता हूँ,

छोटे –छोटे पौधों ने,

अपना सिर निकाल लिया था,

जमीन की तह से,

झींगुर, मोर,मेढकों ने,

हर घर के दरवाजे पर दस्तक दी थी,

न जाने कितनों को जगाया था,

बड़े ही उत्साह से,

तुम्हें दिखने के खातिर,

एक चहल –पहल सी थी,

पता नहीं किसने,

बड़े इत्मीनान से,

स्याह और आसमानी रंगों को मिलाया था,

कितने ही लोगों ने हरी शाल निकाल ली थी,

और मौसम खूबसूरत हो गया था.

आज फिर से वही मंजर आ रहे हैं,

ख्वाब पलकों पर छा रहे हैं,

मन रुआंसा हुआ जा रहा है,

और तुम्हारी याद आ गयी,

अब तो एक ही बात,

मेरे जेहन में चली आती है,

थके मन को सुकून दे जाती है,

कि अबके वो बारिशें फिर से आयेंगी,

मन के अरमानों की दूब हरी कर जायेंगी।

शुक्रवार, 18 जून 2010

मेरे घर का आँगन

बचपन से लेकर आज तक,
दिन से लेकर रात तक,
दिन भर के खेल खिलौने से,
वो रात में पड़े हुए खाट पर,
हर पहर पर जहाँ गुजरता जाता ,
ऐसा था मेरे घर का आँगन.
एक कोने में तुलसी का चबूतरा,
संग लगा हुआ भगवान जी का झंडा,
बीचों बीच एक आम का पेड़,
छत को देखती वो मेहदी की डाल,
एकांत में पड़ा मिटटी का चूल्हा,
जिस पर पूरे दिन दूध गुनगुनाता.
घर तो छोटा था लेकिन,
आँगन मेरा बड़ा विशाल,
जैसे कोई साधारण सज्जन,
रखता हो एक प्यारा दिल,
आज तो इमारतें हैं बड़ी –बड़ी,
पर उनमें दिल नहीं होते,
या फिर होते भी है तो इतने छोटे,
जिसमें कुछ भी नहीं आ पाता.

-navnit nirav-

मंगलवार, 1 जून 2010

पैरों के निशान

सब कुछ तो अचानक ही हो गया,

जैसे कोई ख्वाब सुबह में घुल गया,

कुछ भी तो न बचा,

हमारे तुम्हारे दरम्यान,

सिर्फ,

स्याह सन्नाटे और रिक्तता के,

मानों इस समंदर के शोर में,

सब कुछ हो दब गया,

मैं देखता रहा अपलक,

तुम्हारे और मेरे शरीर के,

बीच की दूरी को,

विस्तार लेते हुए,

न जाने कितनी बातें,

अनकही रह गयीं,

दिल में रह गए,

कितने अरमान,

स्तब्ध सा खड़ा रहा गया मैं,

समंदर किनारे रेत पर,

निहारते हुए,

तुम्हारे पैरों के निशान।


-नवनीत नीरव-