गुरुवार, 17 मई 2012

पचासी के घड़े : पचपन की सुराही

   

चाक चलता है दिन भर,
तब जाकर एक कुनबा है पलता,
खरीदी मिट्टी का बर्तन,
उधार के आँवे  में पकता,
संग जलती है हमारी मेहनत,
आशंकित , थोड़ी बेचैन सी,
जिसे सँवारते हैं बड़े यत्न से,
रास्ते में बिकने के लिए,
ठोक-ठठाकर खरीदने के लिए,
कोई  हाथों से बजा कर देखे,
कोई उलटकर धूप झांके ,  ,
तोल-मोल के आदी हैं सब,
कलाकार को  वस्तु हैं समझे ,
बाजार तो यही सलूक करता है न !!

नानी के घड़े, गाँव की सुराही की बात ,
मुस्कुराकर  हर कोई है करता,
पर वाजिब दाम  देना  है अखरता,
वही दस -पांच रूपए का तोल-मोल,
पुराने किस्से के हवाले संग झिक-झिक,
हमें  मालूम है , हमने ही बेचा है,
माटी के बर्तन माटी के भाव,
पर क्या करें बाबू !
मजदूरी आसमान छुए है,
अब तो माटी भी यहाँ मोल मिले है,
हैरान न  हो यही है सच्चाई,
पचासी का घड़ा, पचपन की सुराही.

-नवनीत नीरव -