शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

तुम्हारी कल्पनाएँ


इक अनकहे ख्वाब जैसी तुम ,
जाने मन की किन परतों में रहीं ,
हर वक्त इक नए एहसास की तरह
कोशिश यही करता रहा मैं ,
कल्पनाओं से हकीक़त में लाऊं तुम्हें,
पर शायद असफल रहा
क्या कभी?
पहाड़ों की उमंग को,
जंगलों के वसंत को ,
कंक्रीटों के शहर में लाया जा सका है ,
नहीं !
जाने कितने भाव जन्में ,
मन के सफ़ेद पन्नों पर,
सरसों के पीले फूलों पर,
लहराती मासूम सी तितली जैसी तुम ,
दरख्त की हरी डाली पर,
सरपट भागती गिलहरी जैसी तुम,
मंद बयार संग लहराती- इठलाती,
बैंगनी फूलों वाली अलसी जैसी तुम,
रोम -रोम को पुलकित कर जाती
गुलाबी ठंडक जैसी तुम
जाने कितनी बातें उभरती हैं,
मेरे जेहन में ,
जब कल्पनों के पंख लगाकर,
नीले आकाश में ,
तुम्हें छूने की खातिर ,
उड़ती हैं मेरी भावनाएं ,
सच कहूं इक सोंधी सी खुशी दे जाती हैं
तुम्हारी कल्पनाएँ

और आज,
जब तुम मेरे पास हो
कोई ख्वाब सच हुआ है जैसे
तुम्हारी मासूमियत, तुम्हारी शोखी,
तुम्हारी अदाएं ,
सब कुछ तो जानता हूँ मैं ,
तुम्हारे बारे में ,
कहीं ये दास्ताँ तो नही है ,
हमारे पुनर्जन्म की
यह इत्तेफाक तो नहीं है ,
कि जो ख्वाब मैं बुनता रहा अबतक ,
तुम उसकी प्रतिमूर्ति हो ,
मेरे मन में रची -बसी
और हो भी क्यों ?
बड़े ही जतन से,
सहेज कर, संभाल कर,
रखता रहा हूँ आज तक जो मैं,
दिल कि डिबिया में ,
तुम्हारी कल्पनाएँ
तुम्हारी कल्पनाएँ

-नवनीत नीरव -