रविवार, 28 जुलाई 2013

पिया तोरी बंसवरिया


घर के पश्चिम, सिरहाने पिया,
तूने जो लगवाई बंसवरिया,
ये चरर-मरर बाजे,
आठों पहर, दुपहरिया पिया,
ये चरर-मरर बाजे.

झर-झर बाजे इसके,
हरे-हरे पात,
इतराती-इठलाती रहे,
सँवर-सँवर दिन-रात,
बन गई बैरन, बिरहिनिया पिया,
ये चरर-मरर बाजे.

काम-क़ाज न फ़िक्र है कोई ,
बेदागी- सी भरमाये,
आँचल, चुनरी लहरा-लहरा,
हवाओं संग पेंग लगाये,
अबके सावन भेजो मोहे नैहर पिया,
ये चरर-मरर बाजे.

कल ही बिहाने बढ़ई बुलाउंगी,
बंसवरिया  कटवाउंगी,
तब पाऊँगी चैन,
पूस, जेठ, भादो अन्हरिया,
क्या कहूँगी जो पूछे कोई,
क्यों तू कटवाये बँसवरिया.

जो चरर-मरर बाजे. 

-नवनीत नीरव-

बुधवार, 17 जुलाई 2013

प्राथमिक पाठशालाओं का आँखों देखा हाल

१. झुग्गी झोपड़ी सा स्कूल 

एक बड़ा सा शहर,
शहर के बीचों बीच एक नाला,
अधखुला, बदबूदार, कचरे से पटा हुआ,
दायीं ओर एक विद्यालय,
जहाँ जमा हैं कुछ बच्चे,
नीली पोशाक में सीलन भरे बरामदे पर,
थालियों में लिए मध्याह्न भोजन,
इतनी गन्दगी कि खड़ा होना मुश्किल,
तो भला पढ़ाई और भोजन...?
पूछने पर कोई सटीक जवाब नहीं,
शिक्षक को बस अपनी ड्यूटी से मतलब,
समुदाय को बच्चों की छात्रवृति से,
बड़ी इमारत के वातानुकूलित कमरों के बाबू,
इसे अपनी उपलब्धि बताते हैं,
जितने अधिकारी उतने मॉडल गिनाते हैं,
बच्चों का क्या है?
कल बड़े हो जायेंगे,
थोड़ा सहेंगे पर बहुत कुछ समझ जायेंगे,
क्योंकि भविष्य में तो उन्हें भी यही सब करना है.

२. एक कमरा तीन स्कूल

राजधानी में यही होता है भाई!
एक कमरा, तीन स्कूल, दो शिफ्ट,
दो स्कूल, दस कक्षाएं,
मिलजुलकर छः टीचर्स पढ़ाएं,
ये तो भला हो बच्चों का,
जो उनके सहपाठी कभी-कभार आयें,
सामने शिलापट्ट पर छपा है,
मुख्यमंत्री का नाम, उद्घाटन तिथि,
पर यह लिखना छूट गया कि,
किस विद्यालय का उद्घाटन ?
अभी एक शिकायत सुनी थी टीचर्स से,
पता नहीं सच है कि झूठ,
एक बच्चा तीन-तीन स्कूलों में
छात्रवृति और पोशाक है लेता,
पर कोई यह क्यों नहीं बताता,
वही बच्चा तीन-तीन विद्यालय है चलाता.

३. सामुदायिक भवन बना पाठशाला

"इस पाठशाला का अपना भवन नहीं है,
यह सामुदायिक भवन में चलता है"
इसलिए यहाँ बिजली नहीं आती है,
फर्श टूटी पड़ी है मरम्मत के बगैर,
दीवारों पर उपले सटे हैं,
पीछे जानवरों का तबेला है,
कूड़े-कचरे का ढेर,बजबजाती हैं नालियां,
जमा हुआ गोबर, भिनभिनाती हैं मक्खियाँ,
इतनी मिली जुली बदबू,
कि तय कर पाना मुश्किल,
कि कौन-सी किधर से आ रही,
क्या सरकारी, क्या गैर सरकारी,
क्या सामुदायिक, क्या व्यक्तिगत,
कोई नहीं सोचता इन मासूमों की,
किसी तरह पेट भरा और एक दिन जी लिया,
बचा-खुचा जो बचा, बोरे में कस लिया,
किस्मत रही अच्छी तो नींद से जग जायेंगे,
नहीं तो सपनों संग लम्बी नींद सो जायेंगे,
एक अपूर्ण खवाब तो शायद,
मरने पर सबके साथ जाए,
जीते जी कुछ ढंग का मिलने से तो रहा.

-नवनीत नीरव-

सोमवार, 8 जुलाई 2013

मेरे बेतरतीब ख्याल


तुम कवि हो,
शायर हो,
फनकार हो,
या फिर कोई कलाकार हो,
तुम जो भी हो,
तुम्हारी नज्में, कवितायेँ,
एक सम्मोहन सा रचती हैं,
सात रंगों की अद्भुत,
त्रिविमीय इन्द्रधनुषी छटाएं.
जिन्हें छू सकता हूँ मैं.

नज्में जिन्हें तुम जब उछालते हो,
पास आते-आते,
कई मायने बदलते- बदलते,
मुझे आकर घेर लेती हैं,
मानों उमड़ती-घुमड़ती काली घटाएं,
मेरे छत-बागीचों पर चू कर,
सफ़ेद धुएं सी फ़ैल गई हों,
एक वादी से दूसरी वादी तक,
एक गाँव से दूसरे गाँव तक,
मंजर जादुई सा लगने लगा है.

कभी यूँ लगता है कि,
लीकर वाले चाय की प्याली में,
डाल दी गई हों कुछ सुगर क्यूब्स,
हर घूँट के साथ जयका बढ़ता ही जाता है,
और आखिरी घूँट फिर से तैयार कर देती है,
अगली प्याली के लिए.

कभी लगता है जैसे पिला दी हो किसी ने,
ठंडी बीयर पहली बार,
दुनिया हौले से झूमती सी लगती है,
बीतते समय के साथ,
खुमारी बढ़ते हुए,
आँखों की सफेदी पर लाल तारों सी उभर आई हो,
पहली बार हल्का नशा हुआ हो.

कभी यूँ भी लगता है कि,
मेरे दिमाग में होने लगी हो आतिशबाजियां,
हल्का सा शोर करता हुआ शरारा,
आसमान की तरफ लपका हो,
जमीं पर बढती हुई अपनी पूँछ टिकाये,
दूर कहीं स्याह आसमान पर,
खिल गए हों गुलशन हर तरफ,
अचानक किसी ने खोल दिया हो,
दरवाजा परीलोक का.

इतना सब कुछ यूँ ही नहीं घट जाता है,
मादकता है जो असर करती है,
बिम्ब जो जलते-बुझते हैं,
तुम जो भी हो कमाल करते हो,
यूँ बातें बेवजह करते-करते,
मेरे ख्याल बेतरतीब करते हो.


-नवनीत नीरव-