मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

दो क्षणिकाएं ...

तेरे बचपन में



भोर के धुंधलके में जब जगा,
देखा पार्क की बेंच पर,
दो बच्चे बैठे मुस्कुराते हैं.
रात ख्वाबों में गया था तेरे गाँव,
मिलने तुझसे,
तेरे बचपन में....



टी-स्टाल 




सोती रातों में जागकर,
मैंने क्या भला किया?
कुछ बेचारे ख्वाबों की नींद उड़ा दी,
देखो न! सुबह सुबह अलसाए फिरते हैं..
तेरे दिल की वादी से गुजरता है न
जो रास्ता....
खोलना चाहता हूँ वहीँ एक किनारे पर,
टी-स्टाल....




-नवनीत नीरव-

रविवार, 17 नवंबर 2013

शहर भीतर अजनबी शहर

बेशरम फिरा करता हूँ,
गली-कूचे बाजारों में,
सड़कों की उड़ती धूल को दुत्कारते,
मकानों की दूसरी मंजिलों को तकते,
एक उम्मीद, एक आसरे से,
बेचैनी खींच ले जाती है,
शहर से दूर खड़ी पहाड़ी पर,
और अन्दर का सन्नाटा,
रात को छत की मुंडेर पर,
जहाँ शहरों के लैम्प मुंह जोड़कर,
जाने क्या बतियाते हैं एक दूसरे से,
मुझे नज़र अंदाज करते हुए,
तिरछी नजरों से देखकर,
दबे होठ मुस्कुराते हुए.

अजनबीपन वास्तविक है,
खुशियाँ मुंह फुलाए हुए हैं,
मेरा स्वं भी मुझसे रूठा है,
अब इस तरह खुद को कोसता रहा,
तो नया शहर अपनाने से रहा,
कितनी भी बार नहा लूं,
कपड़े उतार सुस्ता लूं,
मन का भारीपन कायम रहता है,
बेरहम शहर,
बेरहम मंजर,
दूर उफक पर टंगी हुई मेरी आँखें,
बाट जोहती हुईं,
नए भोर के काफ़िले की,
जो हमेशा कुछ फलांग की दूरी पर ही होता है.

मैं चाहता हूँ मिलना,
जगी हुई आँखों में,
उन लाव लश्करों वाले सिपेहसलारों से
मैं चाहता हूँ मांगना कुछ उजाले,
जो उनके चले जाने के बाद भी,
मेरे भीतर के घटाटोप तहखाने में,
बिखेरते रहें दूधिया रौशनी,
उजाला उम्मीद देता है,
अजनबी शहर में जलते हुए दीये,
अक्सर भान कराते हैं,
कोई जगा हुआ है,
किसी का इंतजार करता हुआ,
एक अजनबी मैं और दूसरा आने वाला,
धीरे-धीरे कुछ और भी आयेंगे
सब अजनबीमय हो जायेगा ,
फिर एक शहर बसेगा इस शहर के भीतर,
अजनबियों वाला.



-नवनीत नीरव-

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

......उनकी खामोशियाँ



आज की रात फिर गुत्थम-गुत्था हैं,
खामोशियाँ उनके भीतर,
बिस्तर पर औंधे लेटे हुए
एक दूजे को समझाने की कोशिश में,
दर्ज करातीं हुईं अपनी असहमति,
लगभग हताश और खीजती हुईं.

एक चुप्पी अपने विन्यास बढ़ाती है ,
बाहर के अँधेरे को दोनों के भीतर उड़ेलती हुई,
सांय-सांय करता हुआ,
कमरे का सन्नाटा,
चक्रवात की तेज हवाओं सा,
बढ़ाता हुआ दोनों की बेचैनी-अकुलाहट.

गहरी सांसें जो बिस्तर से लगी दीवार पर,
टकराते ही दम तोड़ती हैं वाचाल- अनुत्तरित,
महसूसते सम्प्रेषण-संवाद के खालीपन को,
जो टूटती है अक्सर फुसफुसाहट से,
मानों कोई दरो दीवार से अपने कान लगाये,
सुनना चाहता हो कमरे की धड़कनें.

घटाटोप अँधेरा भ्रम पर बरसाता उल्काएं,  
पपनियों पर लटकती हुई
जलराशियों के पृष्ठ तनाव को,
आहिस्ता-आहिस्ता तोड़ते हुए,
पिघलाते हुए दिलों में जमे कसैलेपन को,
घुले हुए क्षार जैसे, मन की कड़वाहट को,
सुनगाते हुए एहसासों की गर्माहट को.

पौ फट रही है ,
निढाल पड़े हैं दो जिस्म,
झुलफुलाह कमरे में,
पसरी हुई गुलाबी- सफ़ेद नीरवता के दरम्यां,
खिलखिला रहा है एक नन्हा पौधा,
बिलकुल लाल कोंपल वाला,
एक विश्वास की आभा दिपदिपा रही है,
उनके चेहरे पर सुस्मित,  
जो उम्मीदतन अगले अँधेरे तक,
कायम रहेगी. 

- नवनीत नीरव-

सोमवार, 9 सितंबर 2013

यथार्थवादी

लाल सूरज की सवारी देख,
मुर्गा देता है बांग,
वर्षा मेघों के पदचाप सुन,
सहसा दौड़ पड़ते हैं आश्रय की ओर,
गाय- बकरियों के झुण्ड,
जलजले के खौफ़ से,
भूतल छेद कर सुरंग में जा घुसता है नेवला,
काल विकट है उनके लिए,
जो लेते हैं सांस,
जिनमें धड़कते हैं दिल,
जो होते हैं भयकातर, आक्रांत,  
परिस्थितियां जो भी पैदा होतीं,
प्रतिकूल या अनुकूल,
हैं तयशुदा तरीके सबके लिए.

मनुष्य दूसरा सर्जक है,
वह तो तर्कवादी है,
मन गढ़ंत दृश्य की कल्पना करता है,
वह क्षणभंगुर है, टूटता है,
उसके अपने सच हैं,
शायद इसलिए तयशुदा नियमों पर,
विश्वास नहीं उसे,
खुद को लतियाता, गरियाता है,
मुंह की खाता है,
खोज लिए है उसने प्रयोजन,
अपनी सुविधा की खातिर,
सबको अनदेखा कर,
जबकि मालूम है उसे,
समय हमेशा से भारी है,
एक हलकी सी चपत सब ढेर,
पर जैसे घोषित करना है उसे,
खुद को स्वयंभू, सर्वशक्तिमान,
इसलिए मुलम्मा चढ़ाये फिरता है खुद पर,
घोर यथार्थवादी होने का,
और कर लिया है उसने खुद को,
सबसे, खुद से, हकीकत से कोसों दूर.

-नवनीत नीरव- 


शनिवार, 31 अगस्त 2013

ये मूरतें हताश नजर आती हैं.


दूर टहलती हुई वादी में,
उस तरफ की कुछ पुरानी कंदराएं,
सारा दिन जमघट सा रहता है,
कैमरे की क्लिक-क्लिक, हंसी ठहाकों में,
आत्मीयता के भाव भी अलग-अलग,
पुरखों के कर्म जरूर शुद्ध रहे होंगे,
जो दिख रही ये विरासत,
पर जब भी पाँव रखते हैं यहाँ,
इन मूर्तिकारों के वंशज,
ये मूरतें हताश नजर आती हैं.

सदियों से खड़ी बर्फ सी इन मूरतों में,
पुरातन अभी जगता है,
कुरूप हुए चेहरे संग,
बेरहमी से अंग-भंग हुई काया में,  
जो शक्तिशाली है, कब्ज़ा उसी का है,
धर्म भी वही चलाएगा,
इतिहासकार इसी भ्रम में है,
किसने तोड़ा, किसे बचाया गया ?
ये व्याख्यान कंदराओं में जरूर गूंजते हैं
पर जब भी पाँव रखते हैं यहाँ,
इन मूर्तिकारों के वंशज,
ये मूरतें हताश नजर आती हैं.

-नवनीत नीरव-

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

भोजपुर में बाढ़


गंगा मैया चली हैं भैया,
गाँव -शहर के दौरे पर,
तोड़-ताड़ कर बांध किनारे,
लोगों को परखने को,
आर-पगार, बांध-क्यारियां,
सब राह छोड़ खड़ी हैं. 
पुराने नाले, आहर, पाइन-पोखर,
पहले यही अगवानी करते थे न !
ये गंगा को दो-चार दिन ठहराते थे,
फिर आवाभगत होती थी,
अपने बिरादरी वाले जो ठहरे,
इन्हीं के घर रहते-ठहरते,
गाँव-जवार का हाल चाल,
सब वहीं मिल जाता था,
महीने-दो महीने बाद
गंगा लौटती थीं अपने देस,
अब तो कोई भी नहीं,
इनकी हाल-चाल लेने वाला,
इनकी सेवा-टहल करने वाला,
सो अनायास ही आती टहलने,
बाग़-बागीचों में,
मस्जिद- शिवालयों में,
स्कूल-अस्पतालों में,
मकान-दुकानों में,
अब जब भी ये आती हैं,
घरों पर लग जाते हैं ताले,
लोग गाँव से बाहर चले जाते हैं,
या अपने छतों पर चढ़ जाते हैं,
बड़े बदतमीज हैं सब,
भूले पड़े हैं आतिथ्य सत्कार,
और कहने लगे हैं इसे “बाढ़”.

(२)
सूखा ज्यादा भयावह है,
कहते हैं राजनेता,
बाढ़-राहत का मतलब,
टपका दो खाने के पैकेट, पानी का पाउच,
हैलिकॉप्टर से गाँवों पर,
लोगों की छतों पर,
अरे! अब इनको कौन समझाए,
चुनावी क्षेत्र का नाम और “बाढ़”
असल में दोनों में बड़ा फर्क होता है,
माना कि दक्खिन सूख के टटूआ रहा है,
पर दियर-हेठार तो डूबे जा रहे हैं,
लोगों की नियमित टकटकी
पानी कब उतरता है?
घुटनों से कमर तक, कमर से छाती तक,
फिर मकान की छत पर,
बिन बरसात के बाढ़,
लोग धूप तापने थोड़े न चढ़े हैं छत पर!
सुना है सोन ने पानी छोड़ा है,
तब तो जिला भी छोड़ना पड़ेगा,
बुरे फंसे दो नदियों के बीच में.
धन-जन सब कुछ,
माल-मवेशी, घर आँगन उजड़ गए,
मकानों में ताले पड़ गए,
दूर तक असीम जलराशि,
बीच-बीच में कुछ पुराने पेड़,
अब चिउड़ा-गुड़ गिराने वाले,
उड़नखटोले भी नजर नहीं आते,
चिपके पड़े है सांप-बिच्छू,
पेड़ों की डूबती-उतराती डालियों से,
गनीमत है कि काटते नहीं,
दम जो सरका हुआ है सबका !
लटके हुए हैं कठुआते हुए लाचार सभी.

(३)
एक दशक से ऐसा मंजर नहीं दिखा था,
शहर हो या गाँव,
बस्तियां खाली पड़ी हैं,
वैसे गाँव तो कबके खाली पड़े हैं,
बाढ़ तो निमित्तमात्र है,
फिर भी कुछ लोग बचे पड़े हैं,
कुछ मोह में कुछ लाचारीवश,
बचा लेने की खातिर,
जो मिला है पुरखों के आशीर्वाद से,
जो अरजा है वर्षो के लगन से,
कुछ जमा किया है चोरिका,
किसी को ठग कर,
किसी को बहला-फुसला कर,
देखना है छप्पर पर बैठकर,
कब तक अगोरिया होती है,
गंगा जी का संताप है,
ग्राम देवता दुखी हैं,
मईया की कौनो पुजाई जरूर बाकि होगी,
जो अमंगल हुआ जाता है,
इनके कोप से कोई नहीं बचता,
बहुत कुछ चला गया है,
बचा है वह भी जायेगा.

(4)
ऐसा सुना है
रात को असंख्य तारे चमकते हैं,
जमे हुए छलछलाते पानी पर,
डूबे हुए गाँव के मध्य,
शहर की छाती पर,
जरूर पुरखे आते हैं आधी रात,
झींगुर की झनझनाहट
मेढक और टिटहिरी  के कर्कश स्वरों से,
बेचैन हो उठता है माहौल,
ये भी सुना है कि
शहर की वीरानी में,
डूबते हुए मोहल्ले में,
कुछ साए आते हैं नौकाएं लेकर,
और बचे हुए घर को,
बड़े तफ़्तीश से ले जाते हैं लूट कर.      



- नवनीत नीरव-