रविवार, 17 नवंबर 2013

शहर भीतर अजनबी शहर

बेशरम फिरा करता हूँ,
गली-कूचे बाजारों में,
सड़कों की उड़ती धूल को दुत्कारते,
मकानों की दूसरी मंजिलों को तकते,
एक उम्मीद, एक आसरे से,
बेचैनी खींच ले जाती है,
शहर से दूर खड़ी पहाड़ी पर,
और अन्दर का सन्नाटा,
रात को छत की मुंडेर पर,
जहाँ शहरों के लैम्प मुंह जोड़कर,
जाने क्या बतियाते हैं एक दूसरे से,
मुझे नज़र अंदाज करते हुए,
तिरछी नजरों से देखकर,
दबे होठ मुस्कुराते हुए.

अजनबीपन वास्तविक है,
खुशियाँ मुंह फुलाए हुए हैं,
मेरा स्वं भी मुझसे रूठा है,
अब इस तरह खुद को कोसता रहा,
तो नया शहर अपनाने से रहा,
कितनी भी बार नहा लूं,
कपड़े उतार सुस्ता लूं,
मन का भारीपन कायम रहता है,
बेरहम शहर,
बेरहम मंजर,
दूर उफक पर टंगी हुई मेरी आँखें,
बाट जोहती हुईं,
नए भोर के काफ़िले की,
जो हमेशा कुछ फलांग की दूरी पर ही होता है.

मैं चाहता हूँ मिलना,
जगी हुई आँखों में,
उन लाव लश्करों वाले सिपेहसलारों से
मैं चाहता हूँ मांगना कुछ उजाले,
जो उनके चले जाने के बाद भी,
मेरे भीतर के घटाटोप तहखाने में,
बिखेरते रहें दूधिया रौशनी,
उजाला उम्मीद देता है,
अजनबी शहर में जलते हुए दीये,
अक्सर भान कराते हैं,
कोई जगा हुआ है,
किसी का इंतजार करता हुआ,
एक अजनबी मैं और दूसरा आने वाला,
धीरे-धीरे कुछ और भी आयेंगे
सब अजनबीमय हो जायेगा ,
फिर एक शहर बसेगा इस शहर के भीतर,
अजनबियों वाला.



-नवनीत नीरव-

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

......उनकी खामोशियाँ



आज की रात फिर गुत्थम-गुत्था हैं,
खामोशियाँ उनके भीतर,
बिस्तर पर औंधे लेटे हुए
एक दूजे को समझाने की कोशिश में,
दर्ज करातीं हुईं अपनी असहमति,
लगभग हताश और खीजती हुईं.

एक चुप्पी अपने विन्यास बढ़ाती है ,
बाहर के अँधेरे को दोनों के भीतर उड़ेलती हुई,
सांय-सांय करता हुआ,
कमरे का सन्नाटा,
चक्रवात की तेज हवाओं सा,
बढ़ाता हुआ दोनों की बेचैनी-अकुलाहट.

गहरी सांसें जो बिस्तर से लगी दीवार पर,
टकराते ही दम तोड़ती हैं वाचाल- अनुत्तरित,
महसूसते सम्प्रेषण-संवाद के खालीपन को,
जो टूटती है अक्सर फुसफुसाहट से,
मानों कोई दरो दीवार से अपने कान लगाये,
सुनना चाहता हो कमरे की धड़कनें.

घटाटोप अँधेरा भ्रम पर बरसाता उल्काएं,  
पपनियों पर लटकती हुई
जलराशियों के पृष्ठ तनाव को,
आहिस्ता-आहिस्ता तोड़ते हुए,
पिघलाते हुए दिलों में जमे कसैलेपन को,
घुले हुए क्षार जैसे, मन की कड़वाहट को,
सुनगाते हुए एहसासों की गर्माहट को.

पौ फट रही है ,
निढाल पड़े हैं दो जिस्म,
झुलफुलाह कमरे में,
पसरी हुई गुलाबी- सफ़ेद नीरवता के दरम्यां,
खिलखिला रहा है एक नन्हा पौधा,
बिलकुल लाल कोंपल वाला,
एक विश्वास की आभा दिपदिपा रही है,
उनके चेहरे पर सुस्मित,  
जो उम्मीदतन अगले अँधेरे तक,
कायम रहेगी. 

- नवनीत नीरव-