सोमवार, 27 अप्रैल 2009

याद


वो शायद समय ही था,
जिसके प्रभाव में ,
हम भी आ गए ।
मुमकिन है कि-
अब न तो मैं ,
और न ही तुम ,
एक दूसरे से मुखातिब होंगे।
इक अनजाने जंगल से ,
अपनों की बस्ती में,
आन बसा हूँ जरूर,
पर मन खाली है ।

तुम तो शायद
अंधेरों में घुल गई होंगी ,
पर तारों से पूछ के बताना जरा ,
मेरी बस्ती का कौन-सा कमरा,
रात भर टिमटिमाता है ।

-नवनीत नीरव -