सोमवार, 9 सितंबर 2013

यथार्थवादी

लाल सूरज की सवारी देख,
मुर्गा देता है बांग,
वर्षा मेघों के पदचाप सुन,
सहसा दौड़ पड़ते हैं आश्रय की ओर,
गाय- बकरियों के झुण्ड,
जलजले के खौफ़ से,
भूतल छेद कर सुरंग में जा घुसता है नेवला,
काल विकट है उनके लिए,
जो लेते हैं सांस,
जिनमें धड़कते हैं दिल,
जो होते हैं भयकातर, आक्रांत,  
परिस्थितियां जो भी पैदा होतीं,
प्रतिकूल या अनुकूल,
हैं तयशुदा तरीके सबके लिए.

मनुष्य दूसरा सर्जक है,
वह तो तर्कवादी है,
मन गढ़ंत दृश्य की कल्पना करता है,
वह क्षणभंगुर है, टूटता है,
उसके अपने सच हैं,
शायद इसलिए तयशुदा नियमों पर,
विश्वास नहीं उसे,
खुद को लतियाता, गरियाता है,
मुंह की खाता है,
खोज लिए है उसने प्रयोजन,
अपनी सुविधा की खातिर,
सबको अनदेखा कर,
जबकि मालूम है उसे,
समय हमेशा से भारी है,
एक हलकी सी चपत सब ढेर,
पर जैसे घोषित करना है उसे,
खुद को स्वयंभू, सर्वशक्तिमान,
इसलिए मुलम्मा चढ़ाये फिरता है खुद पर,
घोर यथार्थवादी होने का,
और कर लिया है उसने खुद को,
सबसे, खुद से, हकीकत से कोसों दूर.

-नवनीत नीरव-