सोमवार, 30 मार्च 2009
घड़े कुम्हार के
कुम्हार बनाये एक घड़ा ।
यूँ तो सधे हाथों से ,
वह घड़े बनाये सुंदर -सुन्दर,
पर कभी -कभी वो सुन्दर घड़े,
टेढे- मेढ़े हो जाते हैं।
तीक्ष्ण धूप में अधिक सूखकर,
दरारें भी पड़ जाती हैं,
या फिर आँवे में धूम- आंच संग,
काले- काले हो जाते हैं ।
इतने पर भी खड़े हो हाट में ,
वो तोल मोल कर बोले बोल ,
कभी नहीं कहता है वह,
इस घड़े में मेरे कोई ऐब है।
पर क्या हम भी इसी तरह,
अपनों की तारीफ करते हैं ?
या उनकी खुशी चाहते हैं ,
जब हमारे रिश्तों में भी
दरारें पड़ जाती हैं ....... ।
-नवनीत नीरव-
शनिवार, 14 मार्च 2009
कुछ समाज पर.. जो अभी तक मैंने लिखा नही.....
पिता और पुत्री
विश्वास हिल जाता है उस पिता का,
इस समाज में ,
जिसे अपनी बेटी ब्याहनी होती है।
क़दमों की डगमगाहट,
स्पष्ट रूप से दिखाई दे जाती है,
मानो अब वह,
लड़खड़ा कर गिर पड़ेगा।
बचपन से लेकर आज तक,
अपनी बेटी के लिए जो स्वप्न देखा था,
आज उसे पूरा करने में,
खुद को,
असमर्थ पा रहा है।
समझौते तो दोनों को ही करने होते हैं,
पर अंतर यही है,
बेटी के समझौते की चर्चा,
हरेक जुबान पर होती है,
और बेचारा बाप,
अपनी बेबसी छुपाये फिरता है।
बेटी के लिए पसंद -नापसंद,
उसे ही समझना होता है,
न चाहते हुए भी,
अपनी प्यारी को,
उस हाथों में सौपना पड़ता है,
जिसकी कल्पना उसने की ही नहीं।
हर बाप अभावग्रस्त नहीं होता,
परन्तु इस मोड़ पर आते ही,
असहाय हो जाता है।
जवाब तो उसे ही देना होता है,
बेटी के साथ,
इस समाज को भी,
जो उसकी एक गलती के इंतजार में,
मुंह बाए खडा है।
उसे तो सबको समझाना है,
बेटे के बाप से लेकर,
अपनी पत्नी तक को,
"रिश्ता ठीक ही है" ,
इसी बात से,
उसे करना पड़ता है संतोष,
कभी ऐसा नहीं होता कि-
प्यास बुझा दे ओस।
उसे तलाश रहती है,
इक सिद्ध पुरुष की,
जो उसे वचन दे सके कि-
"वह उसकी पुत्री को पलकों के पालने में रखेगा"
इसी कल्पना में वह खो जाता है।
मन -मुग्ध हो अपना सर्वस्व,
सौंप देता है उस मानव को।
इसी आशा के साथ,
शायद यही इसकी किस्मत है।
भगवान की यही मर्जी थी।
उसकी सारी ख्वाहिशें पूरी हों,
यह जरूरी नहीं,
पर एक रौशनी हमेशा ,
उसके मन में जलती रहती है।
अपने बेटी के उज्ज्वलता की,
वह कामना करता है,
यह जानते हुए,
आशाएं कभी मरती नहीं।
यही उसका कर्म है।
हर बात आज इस ओर घूमती है ,
कौन किसकी मजबूरी है ?
पिता या उसकी पुत्री,
इस बात पर विचार करने की,
सबकी अपनी-अपनी नीति है,
कोई कुछ भी कहे पर,
यही हमारे समाज की रीति है।
यही हमारे समाज की रीति है।
-नवनीत नीरव-
बुधवार, 11 मार्च 2009
होली
होली और होस्टल
आज होली के दिन
बैठा हूँ मैं,
अपने होस्टल के कमरे में,
इस इंतजार के साथ ,
शायद होली का रंग गहराए ,
और दोस्तों कि टोली निकल पड़े,
रंगों और पिचकारियों के संग,
अबीर गुलाल उडाने .
बचपन में अक्सर ही जिद किया करता,
घर से बाहर होली खेलने की.
पर माँ हर बार मना कर देती ,
शायद उन्हें लगता ,
इन टोलियों की जमघट में,
कहीं उनकी शरारत की भेंट न चढ़ जाऊँ.
पर भला मैं कहाँ समझ पाता ,
मेरा मन बाहर जाने की कोशिश करता,
कभी दरवाजे की दरारों से ,
कभी खिड़कियों के सींकचों से ,
कभी छत की अटारी से
कभी पिछवाडे की फुलवारी से .
घर के पकवानों की खुशबू भी ,
मुझे रोक नहीं पाती.
आज भी मुझे लगता है
मुझमें बचपना शेष है .
आज वही होली है ,
कमरे के दरवाजे खुले हैं
खिड़कियों में सींकचे भी नहीं हैं
मुझे रोकने वाला भी कोई नहीं
पर न जाने क्यों मेरा मन ,
बाहर जाना नहीं चाहता
बाहर जाना नहीं चाहता.
-नवनीत नीरव-