रविवार, 15 अप्रैल 2012

आ चल वहीं उस पुराने शहर में



आ चल वहीं उस पुराने शहर में,
अपने मोहल्ले के अन्जाने पहर में,
जहाँ देखता तुझको अक्सरहां चुपके से,
सिमट आता दिन उस छोटे से पल में, 

तुम्हें देखने की खातिर,
नापा करता था वो गलियां,
दिख जाती जहां तुम बेखबर,
सादगी से सुलझाती बालों की लड़ियाँ,
कभी भरी दुपहर में,
छत पे कपड़े सुखाती हुई,
शाम सहेलियों संग रस्ते में,
हँसती बलखाती हुई,
एक झलक मिलते ही,
गुजर जाता मैं आहिस्ता,
आंखें बस तकती थीं तुमको,
पैरों तले सरकता था रास्ता,
वक्त गुजरता था मेरा,
तेरी यादें संजोने-संवारने में ....  

शाम अब भी आती है यहाँ,
पर सरकती ही नहीं,
हवाएं हौले से मुस्कुराती हैं,
पर दिल में ठहरती नहीं,
खाली-खाली अधूरे से मोहल्ले,
गालियाँ, पार्क सभी निठ्ठल्ले,
सिंगल स्क्रीन सिनेमा हाल,
अक्सर सुला देता है मुझे,
नए कस्बे का अपना “एटीट्यूड” है,
मुझे भाव देता ही नहीं,
गोलगप्पे, चाट सभी स्वादहीन,
शहर का पानी अपना जो नहीं,
शौक जो अब तक टूटे पड़े हैं,
जमा कर रहा अपने सिरहाने में.  

-नवनीत नीरव-

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

ग्राम उवाच

फ़ायदा नहीं है खेती में,
गाँवों में सुख नहीं है,
हम  हालात से मजबूर हैं,
सरकार  को हमारी सुध नहीं है !!१!!

विकास संस्थाएं क्या करतीं क्षेत्र में ,
प्रतिनिधि तक भी नहीं जानते,
"मांग" का राक्षस है नासमझ,
पेट इसका भरे तो भरे कैसे !!२!!

"विशिष्ट अधिकार" जिन्हें मिल जाए,
उनकी वो बपौती बन जाती है,
लोकतंत्र के उलट-फेर से ,
यहाँ कोई डरता नहीं है !!३!!

सुस्त  से सारे लोग है इन दिनों,
ख्वाहिशों के आसमां पर तारे गिने,
स्वार्थ निहित सारी गतिविधियां हैं ,
कौन ,किसकी , क्यों अब फ़िक्र करे? !!४!!

जो काम कल तक अपना था,
अब हो गया वो सरकार का,
खेती चौपट सबने की खुद की यहाँ की,
दोष सारा हो गया सरकार का !!५!!

गाँव अब बन गया नकलची,
चलने चला शहर की चाल,
आर्थिक -सामाजिक के सपनों में उलझ,
भूल गया अपनी ही चाल !!६!!

जो हैं यहाँ वो अपनी कब्र खोदें,
बात-बात पर नसीहतें दें,

सुनने को अब कौन यहाँ तैयार है,
नियम- कानून केवल फाइलें भरें. !!७!!

आज जुड़ना भी किसी "दल" से,
अपने लिए यह शर्म है,
जाति के नाम पर चलती सरकारें,
किन मायनों में यहाँ लोकतंत्र है. !!८!!

गाँधी ने सपने देख "ग्राम स्वराज" का,
पायी थी सबकी आलोचना,
नवभारत के निर्माण वाले,
भूले नए गाँवों की नींव डालना. !!९!!  

विनोबा  चले, जे० पी० बढ़े ,
फांसी चढ़े सबके लिए भगत सिंह,
किनके  सपनों  की बात किये वो आजीवन,
जहाँ हम खुद हैं आदमखोर भी निरीह भी.!!१०!!

-नवनीत नीरव-

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

मैं अब गरीब कहलाना नहीं चाहती हूँ,


(रोज-रोज एक ही बात सुनकर परेशान हो गया हूँ. नई स्कीम, नए प्लान, नए वायदे..फिर वही ढाक के तीन पात. कभी-कभी लगता है, ये जीवन जीने के तरीके ही तो हैं...सो लोग ऐसे ही जी रहे हैं- जनप्रतिनिधि, बुद्धिजीवी प्रशासन और हम )

न सब्सिडी की दान चाहती हूँ,
न अनुदान पर पलना चाहती हूँ,
स्वावलंबी बनने की धुन है,
सारा जीवन अभी जीना है ,
समाज में मैं आत्मसम्मान चाहती हूँ.


मत दो महादलित सा अभिशाप,
न दो “मिड डे मील” की सौगात,
एहसान जताते रहते देकर हमारा हक,
वोट मांगते हमें दिखाकर हमारी जात,  
तुम जैसे तिलचट्टों से अपना,
घर साफ़ रखना चाहती हूँ.


वृद्धा पेंशन और इंदिरा आवास,
अब यूँ खैरात में मत बांटों,
हमको बसाने की आड़ में,
खुद ही मलाई मत काटो,
जोंक जो चिपटे हुए हैं बदन से,
शिक्षा का उनपर नमक डालना चाहती हूँ.
  
हर वक्त ख्वाहिशें यूँ अंगूठा दिखाएँ,
लोकतंत्र हेर-फेर कर परेशां कर जाये,
कभी बिरादरी कभी जाति से,
बेरहमी से बेदखल कर जाए,
इन लकड़बग्घे से बाबुओं के,
चंगुल से अब बचना चाहती हूँ.


ये कुछ नहीं तुम्हारे चोंचले हैं,
विश्वास के नाम पर हमें छले हैं,
किसने कहा तुमको हमें कुछ दो,
आशाएं बढ़ायी थीं अब भुगतो,
सिर्फ तुम्हारे सफ़ेद लिबास की खातिर,
अब ये सम्मान नहीं चाहती हूँ,
मैं अब गरीब कहलाना नहीं चाहती हूँ.

-नवनीत नीरव- 

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

पिया तुम न आए


COPYRIGHT- MEERA BAKSHI
लौट चले फागुन के सब सौगात,
पिया तुम न आए,
पेड़ों से झरने लगे पीले-सब्ज पात,
पिया तुम न आए.

बाट देखती जिस पनघट पर,
रसरी उसकी छोटी हुई जात,
बड़े ताल की जरूरत ना रही,
पानी सीढ़ियों संग उतर आत,
धूप में जैसे मोरी उमरिया ढलती जाए,
पिया तुम न आए.

सुबह-सुबह घर आँगन बुहारूँ,
मैया तुलसी से तुम्हरी कुशलता चाहूँ,
रातों में चंदा संग चलती चली जाऊं.
जुगनू सी भई जोगिन रैन बिताऊं,
तुम क्या जानो रातों में विरह कैसे सताये?
पिया तुम न आए.

-नवनीत नीरव-

रविवार, 1 अप्रैल 2012

तजुर्बा प्यार का


(कुछ ख्वाब सिरहाने की यह १०० वीं पोस्ट है.)

१.
बताना कठिन है प्यार कब शुरू होता है,
जब मालूम भी न हो, असर तब होता है,
एक आकर्षण, अपनापन, अनचाहे एहसास,
बचपन का प्यार अक्सर ऐसे ही होता है.


२.
दिल की धड़कने बढ़ जाती हैं,
इंतजार की घड़ियाँ सुस्त पड़ जाती हैं,
वो कौन सी दुनिया की बात है दोस्तों,
जहाँ दिन छोटे हों रात लंबी हो जाती है.


३.  
स्कूल खत्म होते ही दोस्त बिछड़ गए,
नम-सर्द प्यार के मौसम चले गए गए,
शाख लरज गयी, फूल कुम्हलाए, पात झरे,
प्रेम सफेद बगुले बन कहीं उड़ गए.


४.
सोचने-समझने का वक्त बहुत होता है,
कालेज के दिनों हर नजारा खूब होता है,
चाहत बदल जाती है इस उम्र में अक्सर,
प्यार के नाम पर दिखावा खूब होता है.


५.
दोस्त नए मिलते हैं, उम्र भर के लिए,
रिश्ते बदलते हैं खुद को समझने के लिए,
जज्बात हावी हो जाते सोच पर अपने,
वो मिले तो साझा करते हम सपने अपने.


६.
वादों-ख्वाबो के पक्के रंगों सा मिश्रण,
देते प्यार को गति हर क्षण,
कौन जाने ये रंग भी धुल जाते हैं,
भावनाओं की बारिशों में आदतन.  


७.
कौन समझेगा, किसको समझाएं,
“करियर” को किस ओर ले जायें,
पतवार तो होती है हाथ में अपने,
किनारे पर बैठ हम माँझी को बुलाएँ.


८.
सच कहूँ प्यार के रंग फीके पड़ जाते हैं,
जब इसके खातिर हम जिद पर अड़ जाते हैं,
एक तरफ अपना घर, दूजी ओर अपनापन,
फैसला कुछ भी हो हम कमजोर पड़ जाते हैं.


9.
तेरा सामना करने की हिम्मत न रही,
भेजता रहा तुझे कुछ अनाम चिट्ठियाँ,
संकेतों में कोशिश की थी तुझे समझाने की,
जमाना डाल रहा मेरी पैरों में बेड़ियाँ.


१०.
तजुर्बा प्यार का इतना ही है अभी तक,
देखना है अंजाम आगे क्या होता है,
मोहरें बिछ गयी हैं जिंदगी के शतरंज की,
शहजादा बाजी जीतता है, या कैद होता है.

-नवनीत नीरव-