शनिवार, 28 जुलाई 2012

बारिश और महंगाई


आसमान निहारते कई दुपहरें बीतीं,
स्याह बादलों के टुकड़े नजर नहीं आए,
धान की पौध खड़ी-खड़ी कुम्हलायीं,
किसानों के मुँह-होठ सख्त हुए जायें.

शुरू हुआ दौर ‘राहत पैकेज’ की मांग का,
आपदा-विषमता के कई कारण गिनाये जाएँ,
प्रतिनिधि क्षेत्र की बदहाली का रोना-रोते,
ऐसा नहीं किसी के चंद आँसू निकल आये.

केन्द्र के माथे पर शिकन पड़ते-पड़ते,
कई महीनों संग दीवाली गुजर जाए,
बारिश गुजर गई टूटे छप्पर में भींगते ,
अचरज नहीं जाड़ा बिन कम्बल गुजर जाय.

आखिर क्या हुआ जो मुआवजा मिला,
कुछ सरकारी कागजों का बोझ बढ़ गया,
चंद किसान पलायन कर मजदूर बन गए,
महंगाई बड़े प्यार से बढ़ती ही चली जाय .

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

अल्हड़ चंचल- सी बरसाती हवा


बादल की ऊँगली को थामे,
जोगन बनकर घूमे-घामे ,
कभी धीमी सी, कभी उग्र,
चले सीना ताने करे फक्र,
कभी पुरवैया कभी पछुवा,
अल्हड़ चंचल-सी बरसाती हवा.

उमड़-घुमड़ कर बादल लाती,
गरज-गरज कर ढोल बजाती,
कपड़े छत से जल्दी समेटो,
वर्ना उड़ा उनको ले जाती,
खिड़की दरवाजों से बेधड़क,
बिन पूछे आ जाती बेहया.
अल्हड़ चंचल-सी बरसाती हवा.

उमस मौसम में राहत लाती,
कभी किसी के छत-छप्पर उड़ाती,
शर्मीले गुलमोहर को छेड़ कर,
भरी दुपहरी में बेपानी कर जाती,
ठंढी इसकी तासीर कहें सब,
छू जाए तो न काम करे दवा.
अल्हड़ चंचल-सी बरसाती हवा.

-नवनीत नीरव- 

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

देखो सजनी ! उमड़-घुमड़ अब मेघ घहराए


देखो सजनी! उमड़-घुमड़ अब मेघ घहराए,
अपने खेतन में पानी लाए,
आहर-पोखर, दुआर-अटारी
सब पोरे- पोर भींगाये.

धूल उड़ाती थी गौरैया,
रंभाते बछरू और गैया,
बेदम सारे लोग भये थे,
चारों पहर लथपथ से थे,  
गाँव के धूसर चेहरे पर,
अब हरियाली खुशहाली लाये,
देखो सजनी! उमड़-घुमड़ अब मेघ घहराए.

पेड़, अंगना–दुआर सब चकचक भये,
तार बिजली से टप-टप मोती चुए,
ताल-तलैया सभी को आईना दिखाएँ,
गोरी रोज देख अपनी काया शरमाये,
चहकती हैं आजकल तुम्हरी सब सखियाँ,
गाँव के नवेले जो पाहुन आए.
देखो सजनी! उमड़-घुमड़ अब मेघ घहराए.

-नवनीत नीरव- 

तुम्हारी यादों के साये...

साँझ ढली पंछी सभी घर चले,
नदिया  थकी, कूल सारे उंघने लगे,
बिन  पतवार इक नैया किनारे लगी,
तुम्हारी यादों के साये मुझे घेरने लगे.


रात घनी होवे बेचैनी बढ़ती जाए,
झींगुर के शोर मेरी वेदना बढ़ाये ,
दूर माँझी विरह लोक-धुन सुनाये,
आशाएं जुगुनुओं सी जलती-बुझती जाएँ.
पीर  जिया की  यादों संग घनीभूत हो जाए,
भरी  नदी में मेरा मन प्यासा रह जाए.

मेला टूटा तब भीड़ भई बरसाती,
संग चले थे घर से छूटे संगी साथी
एक अकेला दरिया किनारे,
चाँद तारों का अनामंत्रित बाराती,
इसी  भीड़ में शायद मैं एकाकी हो जाऊं,
या विरह- मिलन के ख्वाबों में खो जाऊं .

-नवनीत नीरव-

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

सिंगल थिएटर नहीं अब मल्टीप्लेक्स.......


इस देश में सभी अंधे बसते हैं,
तभी तो यहाँ खोटे सिक्के चलते हैं.

स्वभावतः सभी टेढ़े हैं यहाँ पर,
सीधे हुए जो पेड़ पहले कटते हैं.

कोयल काली पर जबां हैं सफ़ेद,
जबां बिगाड़े कौए बेमौत मरते हैं.

गणना और आकलन कर रही मशीनें,
लगता नहीं कुछ भी इंसान से हल होते हैं.

न चाँद मामा रहा न बरगद बाबा,
रिश्ते अब सीमाएं जातियों से तय करते हैं.

गाँव में बच्चे-बूढ़ों संग वीरानियाँ भी पलतीं,
शहर में रातों को जवानियाँ ही जगती हैं.

खुद की बजाय गैरों की जिंदगी में झांके सब,
सिंगल थिएटर नहीं अब मल्टीप्लेक्स खूब चलते हैं.

-नवनीत नीरव-

बुधवार, 11 जुलाई 2012

परजीवी बनाम परपोषी

समाज में कुछ लोग ही ऐसे हैं,
जिनका अपना आस्तित्व है,
वे  अनवरत प्रयासशील हैं,
कुछ  अनूठा करने के लिए,
कभी  किसी के मोहताज नहीं,
रोटी बिना मेहनत  पसंद नहीं.

ज्यादातर  लोग मिल जाते हैं,
आजकल बिजनेस में, दफ्तरों में ,
जो  परजीवी व परपोषी होते हैं ,
बड़े जीव पर आश्रित ईमान बेच कर,
बड़ा  चाहे ओहदे में हो या धन में,
सम्पूर्ण  समर्पण को ही नियति मानते हैं.

एक ही मुहावरा समझते सब -
बहती गंगा में हाथ धोना,
येन-केन प्रकारेण सस्ती उपलब्धि ,
चारित्रिक गिरावट है इस कदर,
कि लज्जा को भी लज्जा आ जाए,
अब भगवान ही बताएं कैसी होंगी नई नस्लें.