बुधवार, 7 मार्च 2012

जेल


(तिहाड़ के एक कैदी द्वारा बनायी गयी पेंटिंग- बी० बी० सी० साभार )
एक ख़ामोशी पसरती है वहां,
कुछ दरबानों के संग,
जैसे आई जी आई के मूक से,
गार्ड्स घूमते रहते हों हर लेवल में,
एक गलत हरकत और निशाना आप,
फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है,
जैसे कुछ हुआ ही न था ....

एक भीमकाय लोहे का दरवाजा,
जो अमूमन कभी-कभी ही खुलता है,
एक विषाक्त ध्वनि के साथ,
बताने को - कोई नया मेहमान आया है,
नवागंतुक को इस बात का भान कराता हुआ,
जिंदगी आगे क्या सुलूक करेगी ?
जिसे सोच कर सिहर उठे 
हर  आने वाले की रूह,

अंदर क्या चलता है ?
आज तक जान नहीं पाया,
एक सुराक है,
गेट पर बने छोटे से दरवाजे पर,
कुछ आवाजें अंदर जाती हैं,
कुछ बाहर आती हैं,
पर कोई चेहरा कभी नहीं दिखता,
सिर्फ लोहे का मजबूत ताला,
अपनी रोनी सूरत दिखाता रहता है.
पर आँखें निस्तेज हैं उसकी.

रहस्यमयी लगती हैं,
लाल चिकनी दीवारें,
जो सामान्य घरों की चारदीवारी से,
काफी ऊँची हैं और सपाट भी,
समझ नहीं पाया था आज तक,
चारो तरफ ऊँची “बाउंडरी” क्यों बनाते हैं?
इसलिए कि यह एक स्पेस बना देती है,
अंदर और बाहर की दुनिया में,
व्यक्तिगत और सामाजिक रिश्तों में,
ताउम्र न मिटने वाला “स्पेस”........