बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

नम रेत



कभी शुष्क रेत,
हवाओं संग दौड़ा करती थी,
हर दरवेश, हर मुसाफिर को,
अपने दर्दों गम से रूबरू कराती हुई,
आबाद रही बस्तियों की किस्सागोई,
जहाँ बंजारे रोशन कर जाते थे रातें,
सौदागरों के इशारों पर,
मायावी धुनों पर,
थिरक उठते थे बंजारनों जिस्म,
कालबेलिया की मुद्रा के लबादे में,
फुफकारती पुरवाई और जलती हुई आग संग,
तब कहाँ सो पाती थी रेत,
दिन भर जो भटकती फिरती थी इधर-उधर.
सिंध प्रान्त की कहानियों में,
गुजरने वाले हर काफिले संग,
या फिर बंजारों के अजमत में,
कई सभ्यताओं के बीज छुपाये. 


वर्त्तमान में पड़ी हुई है जो,
किसी समंदर या नदी के मुहाने पर,
इस उम्मीद के संग,
कोई परदेशी दूर देश का,
भूला बिसरा कोई अपना सा,
चाहने वाला मिल जाये,
उसके संग प्यार के दो पल बिताये,
जिसके अपनापन में डूब के,
कोई पुराना संगीत याद आए,
जेहन में बंजारन की बिसरी अदाओं के,  
कुछ पल गमगीन हो जाये,
बरसों से पड़ी उदास रेत नम कर जाये,
जिसकी नमी से सभ्यताओं के बीज,
पुनः अंकुरित हो जाएँ,
नदी-घाटी सभ्यताएं फिर आबाद हो जाएँ.

-नवनीत नीरव-