बुधवार, 23 जून 2010

बारिशें और तुम

मन की आँखें मूँद रहा है,

आंसू कतरा- कतरा तोड़ रहा है

किरणों के सीधे बाणों से,

तन को निर्दयी भेद रहा है,

क्या हाल हुआ जाता है?

इस बार की,

चौंधियाने वाली गर्मी से.

बदन लाख कोशिशों के बावजूद,

शिथिल पड़ जाता है,

असह्य व्याकुल हो गर्मी से,

अब तो यही ख्याल आता है ,

कुछ ऐसा होगा फिर से,

जब कुछ पुरानी कहानियां,

फिर से दुहरायी जायेंगी,

अबके वो बारिशें फिर से आयेंगी,

मन के अरमानों की दूब हरी कर जायेंगी

ठीक वैसे ही

जैसे तुम

आते आते चली आयीं थीं

मेरे इस नग्न पहाड़ों से जीवन में,

जहाँ सूखे दरख्तों की कतारें,

न जाने कब से इंतजार में थीं

किसी आने वाले अनजाने मुसाफिर के,

कि जिसका पता हर रोज पूछा करती थीं

वो आने वाली गर्म थकी हवाओं से ,

कई लोग आते रहे थे

मेरी जिंदगी में अक्सरहां,

जो पहाड़ों के शौक़ीन थे,

पर कभी इस वीराने में न टिक पाए,

सहसा तुम चली आयीं

हवाएं अचानक नम हो गयीं थीं

मौसम ने शायद आखिरी तैयारी की थी

तुम्हारे लिए,

भला कब तक कोई,

बिना किसी फायदे के,

मुसाफिरों का स्वागत करे.

सब कुछ तो बदल गया था,

एक चमक सी आ गयी थी

जब तुम आयीं,

और आते ही बिखेर दी थीं,

कुछ बूंदों कि लड़ियाँ तोड़ कर

अपनी जुल्फों से,

एक सोंधी -सी मिट्टी की महक,

सांसों में भर आयीं थी मेरी,

जिन्हें आज तक महसूस करता हूँ,

छोटे –छोटे पौधों ने,

अपना सिर निकाल लिया था,

जमीन की तह से,

झींगुर, मोर,मेढकों ने,

हर घर के दरवाजे पर दस्तक दी थी,

न जाने कितनों को जगाया था,

बड़े ही उत्साह से,

तुम्हें दिखने के खातिर,

एक चहल –पहल सी थी,

पता नहीं किसने,

बड़े इत्मीनान से,

स्याह और आसमानी रंगों को मिलाया था,

कितने ही लोगों ने हरी शाल निकाल ली थी,

और मौसम खूबसूरत हो गया था.

आज फिर से वही मंजर आ रहे हैं,

ख्वाब पलकों पर छा रहे हैं,

मन रुआंसा हुआ जा रहा है,

और तुम्हारी याद आ गयी,

अब तो एक ही बात,

मेरे जेहन में चली आती है,

थके मन को सुकून दे जाती है,

कि अबके वो बारिशें फिर से आयेंगी,

मन के अरमानों की दूब हरी कर जायेंगी।