बुधवार, 6 जनवरी 2010

इस बार की सर्दी...


कितनी ही सर्दियाँ आई गयीं,
किन्तु इस बार की सर्दी का,
अंदाज कुछ निराला है ,
कोहेरे से ढका है पूरा दिन ,
और रात को पड़ता पाला है ।

सूरज की क्या बिसात जो,
लोगों को दर्शन दे जाये,
कैसे झांके चाँद बेचारा ?
कुहासे ने घूंघट जो डाला,
कहीं मफलर, कहीं स्वेटर,
कहीं टोपी , कहीं चादर,
कितने ही अंजन चेहरों को,
सर्दी ने रच डाला है ।

दृग शांत खामोश खेत हैं,
सड़कें और बाजार बंद हैं ,
गलियां सूनी पनघट सूना,
लोगों की जुबान बंद है,
चीड़ों की चहचहाहट सुने,
कुछ दिन हो गए,
मानों सबकी मुंह पर किसी ने,
बंद कर दिया ताला है ।


आइये चलें ,
शहर की फुटपाथ की तरफ ,
कडकडाती सर्दी से कांपते चिथड़ों में,
कितने ही खामोश दफ्न चेहरे,
और कितने ही लोग मिलेंगे ,
अलाव के पास ,
जो शायद अब बुझने को है।
छोटे -छोटे फुटपाथी पिल्ले,
जो शायद,
सर्दी से लड़ने के लिए ,
तैयार हो रहे हैं ।
सूरज निकलने का बाट जोहते ,
बूढ़े अपाहिज और लाचार भिखारी ,
तय नहीं कर पा रहे,
किसे कोसें ?
सूरज को , ठंढ को ,
या अपने भाग्य को ,
जिसने उनकी मरती आशाओं पर,
पानी फेर डाला है ।

-नवनीत नीरव -