सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

दीपावली विशेष


रोशनी के लिए ....

माथे पर दीयों की टोकरी लिए
चली जा रही मैं सोचते हुए
आज कुछ दीये बिक जाएँ तो
कितने ही दीप रोशन होंगे
छतों की अटारी पर
घरों की ड्योढी पर
कितने ही दीपों की पंक्तियाँ सजेंगी
बच्चों के मन में उमंगें जगेंगी
कुछ आशाएं तो मेरे मन में भी हैं
पर उनपर एक स्याह धुंध सी है
घर के सफाई की ,माँ के दवाई की
छोटी बहन और भाई के पढ़ाई की
कितनी अँधेरी रात है मेरे चारों तरफ,
बालमन के कश्मकश और जिम्मेदारी की।
यदि कुछ दीये बिक जाएँ तो
कुछ रोशनी जरूर होगी
समाज के साथ मेरे घर में
इसी कामना को लिए
चली जा रही मैं दीयों के साथ
एक अदद रोशनी के लिए
नवनीत नीरव



शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

हम - तुम


हम- तुम
मन की कोई बात बताओ मुझको तुम ,
रहती हो खामोश सदा अक्सर गुमसुम ,
कभी- कभी ही दिख पाती है मुस्कान तुम्हारी
दिल ही दिल में क्या बुनती रहती हो हरदम
यही सोचता रहता हूँ मैं कभी तो बातें होंगी
मन को हलकी करने वाली कुछ मुलाकातें होंगी
जज्बातों को काबू करना कोई तो सीखे तुमसे
उम्मीदों को ख्वाब बनाना कोई तो सीखे तुम से
आओ कोई बात करें और साथ चलें हम- तुम
एक नए सफर की शुरुआत करें हम- तुम ।

-नवनीत नीरव

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

अकेलापन


अकेलापन


अकेलापन सुकून देता है।

कुछ लोग बेबाकी से ,

या शायद,

प्रभाव बनाने के लिए,

सीधे सीधे कह कर निकल जाते हैं

जब- जब मैंने सोचा अकेले में

अपने लॉन की बेंच पर बैठकर ,

तब- तब मेरी नाव जिंदगी की

यादों के भंवर में फँस जाती है।

शायद अकेलापन मन को रोकता है

अतीत के चित्र दिखने के लिए,

पर जिंदगी उसी की ढलानों पर

सरपट दूर निकल जाती है

-नवनीत नीरव -

एक पाती

कभी सोचता हूँ एक पाती लिखूं ,
सावन की रिमझिम फुहारों के नाम,
हर साल मिलने आती हैं मुझसे ,
कभी भी कहीं भी सुबह हो या शाम,
छत के मुंडेरों पर, खेतों में अमराई में ,
अनजाने सफर में रस्ता गुमनाम,
कही भी रहूँ अक्सर खोज लेती हैं मुझे ,
इसे प्यार कहूँ की दूँ कोई नाम,
कुछ कहने में शर्म आती है मुझे ,
कैसे कहूँ अपने मन की विकल तान,
इसलिये सोचता हूँ इक पाती लिखूं ,
सावन की रिमझिम फुहारों के नाम।

-नवनीत नीरव -