बुधवार, 4 मई 2011

ख्वाब नगर

बचपन से अब तक,

न जाने कितने किस्से, कहानियों,

और काल्पनिक बातों को लेकर गुजरा हूँ।

कुछ अद्भुत अनोखे ख्वाब,

कभी हंसाते और गुदगुदाते ख्वाब,

अब तो कहने लगे हैं सभी,

मेरी अपनी दुनिया है आजकल।

क्यों कहते हैं सभी ?

मुझे नहीं मालूम,

सिर्फ इतना ही समझ आता है कि,

एक आवरण सा बना लिया है,

अपने चारों तरफ मैँने,

विगत कई वर्षों में।

अब तो हकीकत है कि,

हकीकत भी नजरें चुराती है मुझसे ।

अक्सरहां दोस्त कहते हैं,

समय के साथ चलो,

अब तो खुद को बदलो,

तभी है तुम्हारा अस्तित्व।

मुझे तो केवल,

कुम्हार का वो चाक,

जिसपर मिट्टी का एक लोंदा पड़ा होता है,

घूमता नजर आता है।

कुम्हार अपने सधे हाथों से,

मनचाही आकृति बनाता है,

कुछ ऐसी आकृति जिसकी कल्पना,

मिट्टी के लोंदे ने की ही नहीं ।

जब वह खुद को हवाले कर रहा था,

सोचा था,

चलो समझौता कर लेता हूँ,

जिंदगी तो गुजर जायेगी।

कुछ अच्छे दौर भी आते हैं,

जिनमें वह खुद को सही ठहराता है।

स्वतंत्र और स्वछंद अलग-अलग बातें हैं,

जिसमें स्वयं के लिए सोचते हैं,

खुद के लिए जीते हैं कुछ पल,

और यहीं से उसका हश्र बुरा होता है,

जब बदलना चाहता है वह,

खुद के आस्तित्व को,

पर बदल नहीं पाता,

एक दायरे में वह पक चुका है अब,

जो स्थायित्व देता है।

खुद को खुद के लिए बदलने की जद्दोजहद,

एक आंतरिक उथल-पुथल को जन्म देती है,

एक संघर्ष ,

आस्तित्व के लिए,

जो खत्म होता है,

उसके टुकड़े-टुकड़े होने से,

मिट्टी में मिल जाने से।

शायद सभी के साथ होता है ये,

जब आप तैयार करते हैं खुद को,

दूसरे के अनुसार बदलने के लिए,

जीवन-पर्यन्त तो आपका,

कोई आस्तित्व नहीं रह जाता है।

वजह यही है कि,

मैंने रची है अपनी दुनिया,

आभासी किन्तु अपने ख्वावों की,

जिसके प्रतिबिम्ब समय के साथ,

शायद गहरे हों।

कोशिश तो जारी है,

नए ख्वावों के नगर की,

जहाँ उन्हें देखने वालों को,

एक सम्मान मिले ताकि,

वो खुद के लिए जी सकें,

उनको कार्यरूप में परिणत कर सकें.

-नवनीत नीरव-