गुरुवार, 15 मई 2014

नया इंकलाब शुरू कर...

कितनी जलीं-अधजलीं, ये लाशें गिनना बंद कर,
रोटी उसकी पक चुकी, अब चूल्हा-चौका मत कर.

कुछ सिरफरे, कुछ मनचले, करते नाराबाजियां,
सब खून पानी हो चला, अब तो तमाशा बंद कर.


मारे गए थे जो अभागे, होंगे किसी के आत्मजन,
मर ही गया जब लोकतंत्र, अब तो जनाजा मत कर.

कोई मंत्री, कोई संतरी, कुछ नए किस्मों के बिजूके,
हैं रूप बदले सब भेड़िये, उन्हें संत समझना बंद कर.

कल हार जाऊं गर कहीं तो, एक काम तुम करना मेरा,
भेज उनको बोटियाँ मेरी सभी, नया इन्कलाब शुरू कर.

-नवनीत नीरव-