बुधवार, 24 जून 2015

बैचलर्स और धर्मयुद्ध


इस शाम,
इक मज़ार भींगती है
और भींगता है हनुमान जी का पवित्र चबूतरा
पैलेस रोड के तिराहे पर
मूसलाधार बरसात उंडेल रही है
बाल्टी भर भर जल.
बूंदों के टपकने से फूटते हैं
छोटे-बड़े बुलबुले अनवरत
बंद सींकचों में दोनों बुत से  
बेजार फैली आँखों से
तकते हैं उम्मीद की असंख्य चमकती बूदों को...  
हालाँकि इससे पसीजता नहीं है आसमान
और न ही होता है कोई अनुमान
कि वो आज रात भर नहीं बरसेगा.

आज सुबह से ही पूरे दिन
अख़बार, टेलीविजन और इन्टरनेट पर
आई० एस० आई० एस० के सजायाफ्ता कैदी
पिंजरेनुमा सीकचों में करते रहे इंतजार
अपनी जलसमाधि का
उन्हीं के आखिरी कुछ बुलबुले दिखते हैं
मजार और चबूतरे के भीतर...

अगर इस मजार और पवित्र चबूतरे पर होती छत
तो इस सांस्कृतिक नगर में वे अकेले नहीं भींग रहे होते
उनके साथ होते
चंद आवारा सांढ, यतीम कुत्ते,
जोगी, बेघर पागल और कुछ युवा  
जो इस शहर में बिखरे हुए से भींगते हैं,
किसी नीम के नीचे,
गुमटी की शेड में या फिर
कबूतर चौक की बीस फुटी मीनार की आड़ में
आधी पनाह की खातिर.

सब कुछ तो ठीक है इस शहर में,
पर यह अपनी छत
बमुश्किल “बैचलर्स” से साझा करता है,
शायद यही एक वजह है
कि आज भींग रहे हैं
दावरशाह और हनुमान जी,


दोनों...बैचलर्स.

-नवनीत नीरव-