शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

नीलघोर


बाघ के लिए भी टेढ़ी खीर है,
जान से मार देना उनको,
वो स्थायी सींग वाले,
बलशाली मृग हैं,  
पर चपलता उनके जैसी नहीं,  
कोई धूर्त आसानी घात लगाकर,
कर लेता है उनका शिकार,
कि जैसा इस बार किया सरकारों ने 

बताते हुए चाचा रुकते हैं,
तनिक दम भरते हुए कहते हैं
दूसरे मुलुक के दानव ठहरे
किसान-समस्याओं का आसान हल
घोड़परास सेकुलर-समाजवादी नहीं हैं न!
इस्तीफ़ा-इस्तीफ़ा का खेला बंद,
एक राज्य हमेशा जस्टिफ़ाई करता है 
'नृशंस समूहिक हत्याकांड' को 
राजनीति कुछ भी कर सकती है!

भहराते हुए नीलघोरों देखा है कभी,
मूक...छटपटाना...बिलबिलाना,
कि जैसे आँगन में गिरता है कटा हुआ वृक्ष,
इधर मादाएँ सदमें में हैं
मारा तो सिर्फ़ नरों को
उधर खेत की मेढ़ पर लहलहाते हैं,
बेटी बचाओ’ के पोस्टर...

-नवनीत नीरव- 

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

इस वर्ष में...

इस वर्ष में जो कुछ भी किया,
गर ना भी करता,
तो क्या बुरा होता?

जैसे नए साल की एक डायरी,
कि जिसके दो-चार पन्ने रंगकर,
रख दिया आलमारी के कोने में,
गर दर्ज़ कर जाता कुछेक पल
तो क्या बुरा होता?

कुछ जो तय किया था,
एक साध्य की जुगत,
फिर खोज के सारे किरदार,
पलायन ना कर जाता,
तो क्या बुरा होता?

उलीचता सुवर्णरेखा के अनंत रेत,
बारहों महीने बन साधन,
पूछते हुए हर बार खुद से,
कि जो ये हुआ न होता,
तो क्या बुरा होता ?


-नवनीत नीरव- 

रविवार, 27 दिसंबर 2015

खुद के गुम होते निशान


कहीं पढ़ा था किताबों में
खोजोगे तो मिलेगा
शायद तभी से उसके तलाश की
योजना बना रहा हूँ
मेरे हिसाब से जो गुम हो गया है
जिक्र जिसका अक्सर कर जाता हूँ
किसी मॉल में बैठकर
ऑर्डर देते हुए कैपचिनो
या फिर मेट्रो के लंबे सफर में
वक्त काटने खातिर किए गए गप्प में
कि गाँव गुम हो गए, निशान रह गए
इस हकीकत से अनभिज्ञ  
कि गुम तो मैं गया हूँ।
अपने गाँव के बाहर की,
किसी भूल भूलैया में,
जहां से अब केवल
नजर आते हैं मुझको,
खुद को तसल्ली देने वाले
अतीत के कुछ निशान।  


-नवनीत नीरव-