गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

सप्ताहांत पर एक बूढ़ा जादूगर


परेशां फिरता है हर शख्स ,
आम दिन की आवाजाही में,
हर सुबह से गहरे शाम तक,
जोड़ता, सहेजता, जमा करता है.
कुछ अरमां, चंद ख्वाब,
जिनमें से ज्यादातर अधूरे ही रह जाते हैं
एक कसक दिल में रह जाती है
और वह हफ्ता बीत जाता है.

सप्ताहांत बहुत अहम होता है,
उदासी और हताशा से उबरने को,
बीते हफ्ते का लेखा जोखा दुःख दर्द,
सबका हिसाब किताब करने को  
मन की टूट-फूट, गिले शिकवे दूर कर,
घर पड़ोस से मिलने-जुलने को,
अपनों का अपनापन और एक स्पर्श,
स्नेह का आवरण गाढ़ा कर जाता है

उन दिनों देर शाम बड़ी ही अच्छी कद-काठी का,
आकर्षक वेशभूषा और साफ जबान का
एक बूढ़ा जादूगर आता है,
बड़े सलीके से प्यार भरे लहजे में
पूरी दुनिया-जहाँ की बात करता है,
सबको करोड़पति बनने के सपने दिखा कर  
अधूरे ख्वाब मूर्त करने की चाह
पुनर्जीवित कर जाता है.

-नवनीत नीरव- 

“बिदेसिया त निरहुआ है“


(भिखारी ठाकुर की १२५ जयंती पर एक कविता)

कुछ सालों से खोजता फिरता हूँ
भिखारी आपको
लोक कला के नाम पर तमाशा दिखाते
,
नाट्य मंडलियों में
,
विदेशिया और न जाने कौन कौन-सी शैली की
,
दुहाई देते फिरने वालों के यहाँ
,  
आरा छपरा सीवान पटना में
भोजपुरी भाषा को मान्यता दिलाने खातिर
गाहे-बजाहे रोड जाम करने वाले दलों में
,
पिछले महीने में गया था मैं खोजने आपको
कुछ प्रसिद्ध रंगकर्मियों और नाट्य विद्वजनों के यहाँ
पता चला वो तो विदेश में आपको ढूँढने गए हैं
जो मिल भी गए वो चंद रटे रटाये बोल बोलते हैं
भोजपुरी का शेक्सपियर” “भरतमुनि की विरासत
आपके नाम पर आजकल चंदा भी काटते हैं कुछ लोग
,
बड़का-बड़का भाखन कराने के खातिर
कि भिखारी ठाकुर की प्रासंगिकता क्या है
?
गांव के रसिक पुरनिया बताते हुए मुस्काते हैं
भिखारिया बड़ा सुघर नचनिया था
स्टेज हिला देता था
बाकि दामे बहुत टाईट लेता था
”   
बड़ा निराश हूँ आज मैं
,
यह जानकर कि आज
,
एक सौ पच्चीस बरस हो गए
,
आपको इस धरती पर आए
,
और किसी को आपकी सुध नहीं है
,
थोड़ी चर्चा जरूर है इधर उधर
,
लेकिन इससे हम गंवई और अदने को क्या
,
थोड़ी मशक्कत जरूर कर रहा हूँ
,
आपको जानने और समझने की
,
आपकी सोच को आम जनों और
पलायन कर रहे अपने गांव वालों तक
पहुँचाने के लिए
जहाँ सब नवही लइकन को अब यही मालूम है
,
बिदेसिया त निरहुआ है”. 

- नवनीत नीरव -

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

रोजी-रोटी (बाबरी मस्जिद की बरसी पर)



अभी कल ही देखा था मैंने,
कनॉट प्लेस के सफ़ेद से गलियारे में,
मरियल से एक भिखारी को
अपने खुले गहरे जख्म दिखाते हुए,
जिधर से गुजर गया था मैं,
बिना किसी प्रतिक्रिया के,
लगभग उसे नजरअंदाज करते हुए,
अब तो आदत सी पड़ गयी है,
पर दिल पर असर होता है,
ये बात अलग है कि छुपा जाता हूँ मैं,
अक्सर ही अपने मनोभावों को.

शायद नागवार गुजरा होगा उसे,
मेरा इस तरह से उसे नजरअंदाज करना,
उसने सोचा होगा कि उसके दर्द ने,
मुझे उद्द्वेलित नहीं किया,
सो उसने अपनी बेरहम अँगुलियों से,
अपने खुले हुए सूखते से जख्म को लगभग कुरेद डाला,
ताकि मुझ जैसे गुजरने वाले पर असर हो,
इसी से तो रोजी रोटी चलती है न उसकी,
शायद ये मंदिर-मस्जिद के जख्म भी,
हर साल कुछ इसी तरह कुरेदे जाते हैं,
ताकि हमारे जख्म हरे रहें,
और उनकी रोजी रोटी चलती रहे. 

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

एक उत्सव महिला शिल्पियों के सम्मान का -१

( मैं प्रोफ़ेसर ज्योतिर्मयी आचार्य की लंबी कविता Celebrating the crafts women's pride का हिंदी अनुवाद करने की कोशिश कर रहा हूँ. प्रस्तुत है उस कविता के पहले ड्राफ्ट से कुछ अंश)

मैंने कभी नहीं देखा है तुम्हें 
घर, बरामदे और आंगन में बैठे हुए खाली हाथ,
शिल्पकारों के समूह में, 
पहने हुए सोने की अँगूठी, 
अपनी सधी हुई कुशल अँगुलियों में, 
न ही पहने हुए कोई भी 
बुनी हुई संभलपुरी साड़ी,
अपने बदन पर,
घर के बैठकखाने को सुन्दर पीपली या पट्टचित्रों से सजाये हुए,
हतोत्साहित सी बैठे हुए यह खबर सुनकर,
कि कोई पहचान वाली दहेज प्रताड़ना के साथ वापस भेजी गयी है.

मैंने देखा है तुम्हें,
बड़े मनोयोग से तेजी से उकेरते हुए कुछ आकृतियाँ,
बुनाई, चित्रकारी और पिपली की,
डेरा डाले हुए सुबह से शाम तक,
निष्पादित करते हुए अनगिनत सांसारिक काम,
ठाट-पट्टी के सघन मूक सी बस्ती में,
एक ही शिल्पसमूह में समान काम के,
भेदभावपूर्ण मजदूरी पर काम करते हुए
बड़ी सावधानी से दूध पिलाते हुए अपने बच्चे को,
जब कढ़ाई पर चल रहीं हों सुइयाँ और धागे,
परोसते हुए भोजन अपने परिवार और बुजुर्गों को बड़े स्नेह से,
कुछ भी नहीं बचता सिवाय,
निस्तेज आँखें, असहनीय कमर दर्द और अवसाद की परतों के
मनाते हुए त्योहार श्रमसाध्य मेहनत के बावजूद,
कुछ भी न मिल पाने की आँच में झुलसते हुए....

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

नम रेत



कभी शुष्क रेत,
हवाओं संग दौड़ा करती थी,
हर दरवेश, हर मुसाफिर को,
अपने दर्दों गम से रूबरू कराती हुई,
आबाद रही बस्तियों की किस्सागोई,
जहाँ बंजारे रोशन कर जाते थे रातें,
सौदागरों के इशारों पर,
मायावी धुनों पर,
थिरक उठते थे बंजारनों जिस्म,
कालबेलिया की मुद्रा के लबादे में,
फुफकारती पुरवाई और जलती हुई आग संग,
तब कहाँ सो पाती थी रेत,
दिन भर जो भटकती फिरती थी इधर-उधर.
सिंध प्रान्त की कहानियों में,
गुजरने वाले हर काफिले संग,
या फिर बंजारों के अजमत में,
कई सभ्यताओं के बीज छुपाये. 


वर्त्तमान में पड़ी हुई है जो,
किसी समंदर या नदी के मुहाने पर,
इस उम्मीद के संग,
कोई परदेशी दूर देश का,
भूला बिसरा कोई अपना सा,
चाहने वाला मिल जाये,
उसके संग प्यार के दो पल बिताये,
जिसके अपनापन में डूब के,
कोई पुराना संगीत याद आए,
जेहन में बंजारन की बिसरी अदाओं के,  
कुछ पल गमगीन हो जाये,
बरसों से पड़ी उदास रेत नम कर जाये,
जिसकी नमी से सभ्यताओं के बीज,
पुनः अंकुरित हो जाएँ,
नदी-घाटी सभ्यताएं फिर आबाद हो जाएँ.

-नवनीत नीरव-

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

शहर का आखिरी आदमी


गूगल से साभार
बेबाक शहर की गुमनामी में पलता हूँ मैं,
हवाओं की सरसराहट संग फिसलता हूँ मैं,
न कोई उम्मीद, न आरजू, न जीने का फलसफा,
आधी उम्र बीती, न जाने कब से ऐसा ही हूँ मैं.  

खुदगर्ज, आत्ममुग्ध, अतार्किक,स्वाभिमानी,
नाउम्मीद, फजीहतजदा, अकेलेपन का खुद ही मानी,
अपने कुनबे तक रही दुनिया मेरी आजतक ,
कभी-कभार ही ऊब कर बाहर निकलता हूँ मैं.

अक्सरहां सुनता हूँ नारे जयघोष इधर-उधर,
कभी विरोध प्रदर्शन के उग्र कभी तीखे स्वर,
बुद्धू बक्सा, चौथे खम्भे अपनों का ख्याल गायें,
आखिरी आदमी हूँ खुद में ही बंद रहता हूँ मैं.


-नवनीत नीरव -  

सोमवार, 24 सितंबर 2012

अवसाद


सुनहरे बचपन की भरी दुपहरी में,
कुछ सपने देखे थे मैंने,
गाँव की पुरानी नहर के किनारे,
जामुन के चंद पेड़ों की छाँव तले,
कुछ मनचाहा करने की,
अपनी सीमाएं जो नहीं मालूम थी,
सोचा था मुक्कमल करूंगा अपने वजूद को,
पर हकीकत कुछ और ही बना गयी,
सपने पूरे हों यह जरूरी तो नहीं,
जो मिला उसे अच्छे से निभाया जाय.

मन में उत्साह भर कर,
शुरू किया एक नया सफ़र,
कुछ जोखिम लेने के लिए,
कुछ आत्मसंतुष्टि की खातिर,
कुछ लोगों की नज़रों ने इसे,
युवास्था का जोश बताया था,
"आदर्शों और आत्मविश्वास से ओत प्रोत".
आगे बढ़ा ऐसी तुच्छ बातों को,
नजर अंदाज कर निर्भीकता से,
चलता चला मैं खुद की खातिर.

सहसा महसूस होता है,
सिर्फ मैं ही गतिशील हूँ,
परिवेश तो यथावत है,
रास्ते खाली पड़े हैं,
लोग जड़वत हैं खंडहरों के बुतों से,
मानों किसी तांत्रिक के शाप से अभिशप्त हों.
आखिर, मैं क्यों चल रहा हूँ?
किसकी खातिर चल रहा हूँ?
इस तरह कहाँ पहुंचना है मुझे?
अकेला कब तक चलूँगा ? 

लक्ष्य खोता सा लग रहा है.
पुतले अट्टहास कर रहे हैं
कमरे की छत अचानक फैलने लगी है,
अँधेरा घुप्प हो गया है और चुप भी,
गला सूखा है मेरा ,
पर शरीर पसीने से तर है,
भविष्य और कितना निराश करेगा....
मैं खुद को कितना नाउम्मीद करूँगा..
टिटहरी फिर बोली है..
चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही है,
एक सवेरा फिर होने को है,
चमकीले सपने का एक स्याह पन्ना,
फिर पलट गया,
और इसी तरह पलटते-पलटते खाली पन्ने,
शायद एक दिन उम्र भी चूक जायेगी.

-नवनीत नीरव-    

सोमवार, 17 सितंबर 2012

समंदर का बचपना नहीं जाता


समंदर का बचपना नहीं जाता,
लहरें अठखेलियाँ करती जाती हैं,
उधम मचाती हुई शोर करती हैं,
देख जिसे पथिक क्षण भर ठहर जाता है,
अपने तमाम दुखों को भूल,
सिमट आता है उस जगह उस लम्हे में,
असीमित प्यार से सराबोर होता हुआ. 

समंदर विनोद करता है
सहसा भींगो जाता है,
अन्तर्मन को शीतल करता हुआ,
सागर मनोभावों को छूता है,
थोड़ी ही देर ठहरने वाला मुसाफिर,
जो पहले भींगने से परहेज करता था,
उसके संग बच्चा बन जाता है,
लहरों पर इधर-उधर भागता हुआ. 

समय बीतता जाता है,
समंदर नहीं थकता, 
पथिक बैठ जाता है किनारे पर,
निहारते हुए अल्हड़ बातूनी सागर को,
अंदर एक शांति महसूस हो रही है,
अब कोई जल्दी नहीं है उसे,
समंदर खेलता ही जाता है,
बिना थके बिना रुके,
सचमुच समंदर का बचपना नहीं जाता.  

-नवनीत नीरव-