रविवार, 28 नवंबर 2010

ख्वाबों के छुट्टे

बचपन से युवा बनते-बनते,
जाने कितने सयाने,
कितने बड़े ख्वाब,
संजोये थे मैंने ,
कोशिश यही थी कि,
कभी इनसे,
कोई बड़ी खुशी खरीदूंगा.
कई सालों तक इन्हें,
संभाल कर रखता रहा,
इन्हें खर्च करने से बचता रहा,
डर था कहीं इनके खुले हो गए तो,
ये सारे छोटी-छोटी खुशियों में ही,
जल्दी ही खर्च हो जायेंगे .
जाने कितने अपनों ने,
मुझे जानने वालों ने,
उधार पर मेरे ख्वाब मांगे ,
पर बड़ी ही निष्ठुरता से मैंने,
मना कर दिया उनको हर बार,
कई बार रस्ते बदल दिए मैंने,
जिधर मांगने वाले मिलते,
इतने सालों बाद,
हालात से उलझने के बाद,
अब ये समझ में आया,
छोटी-छोटी खुशियों से ही,
बड़ी खुशी मिलती है,
आज चाहता हूँ
हर छोटी खुशी समेटना,
पर किसी के पास,
मेरे बड़े ख्वाबों के छुट्टे नही हैं.

-नवनीत नीरव-