बुधवार, 21 मई 2014

वह जो अच्छा लगता है...

शोर-शराबे में डूबते-उतराते
परेशान हुए इस मन को,
शांति चाहिए,
जो अप्रासंगिक नहीं हो.
जो थोड़ी अपनी सी लगे,
जिसमें ठहराव हो,
एक निरंतरता भी,
जो जेहन में कैद होकर भी,
ले सके सुकून भरी सांस,
जो सुरक्षित रह जाए यादों में,
जैसे अपने बचपन की स्मृतियाँ.


बचपन से लेकर आजतक,
कुछ बातें हैं,
जो मेरे साथ चली हैं,
कुछ यादें जो साथ रही हैं,
कुछ चीजें आज भी यथावत हैं,
बिलकुल वैसी ही,
जैसी वो मेरे बचपन में रही थीं.

गर्मियों की रातें अकसर गुजरतीं,
छत पर टहलते,
बिस्तरों पर लेटते-पलटते,
जिनका ठंढापन,
ताजगी देता था रात भर,
निहारता था ध्रुवतारे को,
आहट पाकर सप्तर्षियों की,
बार-बार उठकर,
बाट जोहता था बेसब्री से
ध्रुवतारे की,
मुझे यकीं था,
ये सब साथ ही चलते हैं,
समय के पाबन्द,
जो इशारा दे जाते मुझे,
भोर होने वाली है.

पौ फटते ही,
छा जाती लालिमा,
आसमान आसमानी-नारंगी सा,
सहसा चमक उठता,
बांग देता हुआ मुर्गा,
उठाता रहता शरारत से,
छोटी बड़ी चिड़ियों को,
जो निकल पड़ती दाने-चुग्गे की तलाश में,
दूर किसी सैर पर,
पंक्षियों की कतारें,
पेड़ और हरे भरे हो जाते,
सभी जुट जाते अपने काम पर,
सबमें जैसे एक होड़ सी रही है,
सबकुछ नियत समय पर शुरू करने की,
सारी फिजां व्यवस्थित करने की,
सजा देने की चाह जैसे,
ये दुनिया नहीं,
एक दफ़्तर हो सूरज का.


अपने गाँव के बबूल से,
लटके देखे हैं मैंने,
कुछ मटके,
गोल-लम्बी गर्दन वाले सुराहीदार,
सचमुच बया कलाकार है,
मेहनत करती है तिनके जमा करने में,
एक-एक घास बिलकुल सूखी हुई,
कुछ रेशे, कुछ पत्तियाँ,
पता नहीं कहाँ से खोज-बीनकर,
ले आती है,
मेहनत करती है इसे सजाने में, बनाने में,
सच है बया जैसी,
मेहनत नहीं करते हम,
वर्ना दुनिया अबतक सुंदर दिखती,
बिलकुल बया के घोंसले सी.
एक बच्ची दो-तीन साल की,
दिन भर माँ-माँ पुकारती है,
तुतलाती है हरसंभव,
यह जानते हुए,
माँ कहीं जाती है काम पर,
तभी तो दिन भर नजर नहीं आती,
शाम तक दरवाजे के आस-पास ही,
चहल कदमी करती है वह,
आने के इंतजार में,
दौड़ती उसकी ओर बाहें खोलकर हर बार,
जब कभी दिख जाती है माँ,
चेहरे पर एक चमक, एक मुस्कुराहट लेकर,
जो हर दिन दुहारावे के बावजूद,
फीकी नहीं पड़ती.


यद्यपि उनेक पास काम कम होता है,
न ही जमा कर रखा है उन्होंने धन,
प्रोफेशनल जिनको कोई नहीं कहता,
पर शायद उतनी प्रतिबद्धता नहीं दिखती,
किसी में भी आज के समय,
चारों पहर दिन रात जुटते हैं,
अपने काम में दिल से,
ताकि देश को मिल सके,
सस्ते आनाज, खाने को रोटी,
जीवन कठिन है उनका,
पर चेहरे पर दिखता संतोष,
जो ताउम्र कायम रहता है,
खेती किसानी करते हुए.




कितनी खुबसूरत है न ये दुनिया,
स्वचलित मशीनों वाली,
सब लोग, नदी, पहाड़, जंगल,
खुद ब खुद चलते हैं,
प्रकृति, मानव, मशीन और उनके काम,
सब एक दूसरे से जुदा हैं,
पर जुड़े नज़र आते हैं,
कौन है जो इन सबको चलाता है,
किसने इनको गढ़ा है,
एक अदृश्य शक्ति जिसको मैंने
कभी नहीं देखा,
पर हर वक्त महसूस करता हूँ.



-नवनीत नीरव-

सोमवार, 19 मई 2014

जिंदगी: एक किताब

किताब के पहले सफ़हे पर,
नाम काट कर किसी का,
उसने लिख दिया है मेरा नाम,
अब वो किताब अपनी है...

छोड़ आया जिसे मैं बिना वजह,
कल ख्वाब वो दोराहे पर मिली,
एक समंदर उफनता रहा रात भर,
सुबह एक बदली बरसी है...

दिल भी न जाने क्यों गढ़ता है,
बेवजह, बिना मतलब के मुहावरे,
प्यार चुक जाता है एक ही बार में,
शेष बस जिन्दगी गुजरी है...

-नवनीत नीरव-

गुरुवार, 15 मई 2014

नया इंकलाब शुरू कर...

कितनी जलीं-अधजलीं, ये लाशें गिनना बंद कर,
रोटी उसकी पक चुकी, अब चूल्हा-चौका मत कर.

कुछ सिरफरे, कुछ मनचले, करते नाराबाजियां,
सब खून पानी हो चला, अब तो तमाशा बंद कर.


मारे गए थे जो अभागे, होंगे किसी के आत्मजन,
मर ही गया जब लोकतंत्र, अब तो जनाजा मत कर.

कोई मंत्री, कोई संतरी, कुछ नए किस्मों के बिजूके,
हैं रूप बदले सब भेड़िये, उन्हें संत समझना बंद कर.

कल हार जाऊं गर कहीं तो, एक काम तुम करना मेरा,
भेज उनको बोटियाँ मेरी सभी, नया इन्कलाब शुरू कर.

-नवनीत नीरव-