रविवार, 21 जून 2009

मन गीला नहीं होता

(मेरा मानना है कि यदि कविता बहुत लम्बी हो तो अक्सरहां उसके भाव तनु हो जाते हैं। जब बात ब्लॉग पर कविता लिखने की हो तो लम्बी कविता लिखने से आजतक मैं बचता रहा। परन्तु यह कविता जिसे मैंने आज लिखा है , न चाहते हुए भी थोड़ी लम्बी हो गई है आशा है कि आप इसे अपना प्यार देंगे। )
(१)कभी -कभी बीती बातें,
खट्टी मीठी गाँव की यादें,
मन को गीला कर जाती हैं।
जाने वह ,
कौन -सा पहर था,
जब शहर से,
नौकरी की चिट्ठी आई,
तुझसे क्या छुपाना ?
मेरा मन,
उड़ान भरने की कोशिश में था,
जैसे परकटा परिंदा,
पिंजरे से भाग जाना चाहता हो।
अपनों की बातों से,
सीना जो जला था मेरा,
जैसे अलाव में,
अधिक भुन गए हों कच्चे आलू,
रात आँखों में ही काट दी थी मैंने।
कुएं की जगत पर,
हाथ मुंह धोये थे,
आने के वक़्त ,
मुझे याद है ,
मेरी हाथों से छिटक कर,
न जाने कितनी दूर तक,
लुढ़का था वह,
पीतल का लोटा,
मानों कह रहा हो,
तुम्हें तनिक भी परवाह नहीं हमारी।
तुलसी मैया ने,
अपनी छाँव की आँचल,
मेरे ऊपर ओढा दी थी,
जुग-जुग जीयो,
पर जल्दी आना,
आँखों के कोरों पर,
ठिठके हुए आंसू देखकर,
मैंने जल्दी से,
अपना सामान उठाया,
डर था ,
कहीं आंसुओं के बहाव में,
मैं भी न बह जाऊं।
घर के दरवाजे पर लगे,
बेल के पेड़ से,
कुछ ज्यादा ही लगाव है,
अपने ही हाथों से,
रोपा था इसे मैंने
पत्तियां हवा के झोंकों संग,
बार बार यही कहती रहीं ,
अपना ख्याल रखना ,
जल्दी आना,
पर शायद मैंने,
सोच ही लिया था,
अब नहीं आऊंगा ।
(२)सुरमई आकाश तले,
ताड़ ओर झरबेरियों वाली पगडण्डी पर ,
अपना सामान लिए ,
मैं चल पड़ा,
बचपन की यादों को निहारते ,
वही अमरुद बागान.......
वही पाठशाला ........
वही डाक्टर बाबू की क्लीनिक.....
और पुराना डाक बंगला......
जो मेरे मन की तरह जीर्ण-शीर्ण है ।
भागते टमटम की टापों के बीच ,
सारी बचपन की यादें ,
गुजर रही थीं ,
मानों ,
फिल्म चल रही हो,
रेलगाडी के आखिरी सीटी के साथ,
लगा,
मानों मेरा कलेजा,
मुंह को आ जायेगा।
धीरे-धीरे ट्रेन स्टेशन छोड़ रही थी,
मन शिथिल हो रहा था ,
वर्त्तमान और अतीत के बीच,
मैं झूल रहा था,
दरवाजे से खड़े होकर,
एक ही नजर में ,
आखिरी बार,
पूरे गाँव को निहार लेना चाहता था,
जो धीरे-धीरे,
रेल की पटरियों के बीच,
ओझल हो चला था ।
मन के सारे बांध,
मानों टूट गए हों ,
सारा चेहरा आंसुओं से,
भींग गया,
अब तो आँसू पोंछने वाला भी ,
कोई नहीं,
गुस्सा धीरे धीरे टूट रहा था,
और ,
मन गीला हो गया ।
(३)आज कई साल बीत गए,
गाँव के दर्शन हुए ,
अकेलेपन से मेरी हालत है अजीब,
जैसे गाँव के बाहर हो पुरानी मस्जिद,
सोचता हूँ,
गाँव से रिश्ता कभी छूट नहीं पायेगा,
भले ही वह यादों का ही हो,
कुछ खास रिश्ता तो है हमारा,
वर्ना यूँ ही,
किसी के लिए,
मन गीला नहीं होता।
मन गीला नहीं होता


-नवनीत नीरव-

गुरुवार, 18 जून 2009

आसमानी छतरी

याद है तुम्हें ,
पिछली साल की बारिश का वो दिन,
इस पार्क के कोने में ,
सीमेंट वाली वो बेंच,
जहाँ आखिरी बार हम बैठे थे,
तुम अचानक ही सिमट आई थीं,
मेरे समीप,
एक अनजाने भय से।
जबां खामोश थीं,
पर जज्बातों के बादल उमड़ आये थे,
मौसम रुआंसा हो रहा था,

दोनों के जिस्म बारिश में,
ऐसे सराबोर हो रहे थे,
मानों कोई पाल वाली नाव,
बीच समंदर में भींग रही हो।
ठण्ड से कांपते थरथराते,
तुम्हारे गुलाबी होठ,
भींग कर सफ़ेद हुए जाते थे ,

बारिश की परवाह कहाँ थी हमें,
हम तो सिर्फ रोये जाते थे,
और तुम्हारी वो आसमानी छतरी,
खुली औंधी,
न जाने कितनी देर तक,
भींगती रही थी ,
जाते वक़्त जिसे तुम,
वहीँ भूल आई थीं ।
तुम तो चलीं गयीं,
पर मैं आज भी
उसी बेंच पर आ बैठता हूँ,
हर इक बरसाती दिन में,
इस आसार में शायद,
तुम आओगी,
अपनी छतरी लेने।
फुर्सत मिले कभी
तो आकर देखना जरा ,
पार्क के उस कोने में ,
एक बरसाती फूल खिला है ,
बिलकुल तुम्हारी उस ,
खुली औंधी आसमानी छतरी जैसा ।

-नवनीत नीरव-

बुधवार, 17 जून 2009

बादलों से बातें

(बरसात शुरू हो गई है । बादल आने लगे हैं ।)
चलो हम बादलों से बात करते हैं,
कुछ अपने दिल के जज्बात कहते हैं,
संदेशे भेजते हैं बूंदों से जब वो ,
न जाने हमसे क्या फरियाद करते हैं।

लेकर कई गम समंदर औ पोखरों के,
हवा में झूमते हैं वो जज्बाती होके,
गम ठहरे गर दिल में तो वो बादल जैसे,
और बह जाए तो उसे बरसात कहते हैं ।
चलो हम बादलों से बात करते हैं।

निराली बात है जो पहाडों से लिपट कर ,
वो अपने प्यार का अक्सर इजहार करते हैं,
हमारी आदत है ये बन चुकी ,
जो अपनों को भी नजरंदाज करते हैं।
चलो हम बादलों से बात करते हैं ।

ढूंढते फिरते हैं अपनों को वो गैरों में,
ख्याल हर किसी का वो दिन रात करते हैं,
बढ़ रही है हमारे रिश्तों की थकावट,
कहाँ अपनों के हम दर्द की परवाह करते हैं ।
चलो हम बादलों से बात करते हैं ।

चलो हम बादलों से बात करते हैं,
नए एक दौर की शुरुआत करते हैं,
चलता रहे हमेशा मोहब्बत का काफिला,
चलो उस सफर का आगाज़ करते हैं।
नवनीत नीरव

शनिवार, 6 जून 2009

प्यार

इस ज़माने में सभी प्यार करते हैं
कुछ इकरार, तो कुछ इजहार करते हैं,
कुछ ऐसे भी शख्स हैं यहाँ ,
जो इससे इंकार भी करते हैं,
कुछ प्रेम पत्रों के सहारे करते हैं,
कुछ गीतों, नज्मों से करते हैं,
कुछ दिल से करते हैं ,
कुछ दिल ही में करते हैं,
कुछ शौक के लिए करते हैं ,
कुछ शौक के लिए बेचते हैं,
तरीके चाहे जो भी हों ,
मगर वो प्यार करते हैं,

प्यार तो वही रहता है जनाब,
बस उसकी खुशबू बदल जाती है।