शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

एक उत्सव महिला शिल्पियों के सम्मान का -१

( मैं प्रोफ़ेसर ज्योतिर्मयी आचार्य की लंबी कविता Celebrating the crafts women's pride का हिंदी अनुवाद करने की कोशिश कर रहा हूँ. प्रस्तुत है उस कविता के पहले ड्राफ्ट से कुछ अंश)

मैंने कभी नहीं देखा है तुम्हें 
घर, बरामदे और आंगन में बैठे हुए खाली हाथ,
शिल्पकारों के समूह में, 
पहने हुए सोने की अँगूठी, 
अपनी सधी हुई कुशल अँगुलियों में, 
न ही पहने हुए कोई भी 
बुनी हुई संभलपुरी साड़ी,
अपने बदन पर,
घर के बैठकखाने को सुन्दर पीपली या पट्टचित्रों से सजाये हुए,
हतोत्साहित सी बैठे हुए यह खबर सुनकर,
कि कोई पहचान वाली दहेज प्रताड़ना के साथ वापस भेजी गयी है.

मैंने देखा है तुम्हें,
बड़े मनोयोग से तेजी से उकेरते हुए कुछ आकृतियाँ,
बुनाई, चित्रकारी और पिपली की,
डेरा डाले हुए सुबह से शाम तक,
निष्पादित करते हुए अनगिनत सांसारिक काम,
ठाट-पट्टी के सघन मूक सी बस्ती में,
एक ही शिल्पसमूह में समान काम के,
भेदभावपूर्ण मजदूरी पर काम करते हुए
बड़ी सावधानी से दूध पिलाते हुए अपने बच्चे को,
जब कढ़ाई पर चल रहीं हों सुइयाँ और धागे,
परोसते हुए भोजन अपने परिवार और बुजुर्गों को बड़े स्नेह से,
कुछ भी नहीं बचता सिवाय,
निस्तेज आँखें, असहनीय कमर दर्द और अवसाद की परतों के
मनाते हुए त्योहार श्रमसाध्य मेहनत के बावजूद,
कुछ भी न मिल पाने की आँच में झुलसते हुए....