रविवार, 19 अप्रैल 2009

पुरानी कविता

जिंदगी के गुजरे पलों को याद करना,
मानों हो किसी पुरानी कविता को दुहराना,
जो मन के अन्दर ,
किसी कोने में दबी हुई थी ,
लाइब्रेरी में पड़ी पुरानी किताबों जैसी ,
धूल की मोटी परतों से ढंकी,
गुप-चुप सी, अलग- थलग, खामोश- सी,
संवेदनाओं को सीने में दबाये,
और आज अचानक ही ,
अंतर्मन की भावनाओं संग ,
जेहन में उभर आई है
पन्ने भले ही उमर दराज हों ,
पर शब्द कहाँ पुराने होते हैं

जिसे सुना था मैंने ,
अपने पापा से ,
किसी खास मौके पर ,
जो समय के साथ शायद,
मैं भूल चला हूँ

जिसे पढ़ा था मैंने ,
पुराने अख़बार की कतरन पर ,
या फिर मूंगफली के ठोंगे पर ,
जिसकी सोंधी -सी महक,
अभी साँसों में भर आई है

जिसे कंठस्थ कर पाया था,
टीचर की डांट खाकर ,
और कितने ही ,
प्रयासों के बाद ,
अपने कोर्स की किताबों से

या कभी सुना था ,
सुदूर से आती स्वरलहरियों संग ,
किसी लोक गायक की आवाज में ,
नींद से बोझिल थीं पलकें उस वक्त ,
पर कुछ पंक्तियाँ अभी भी जीवंत हैं

-नवनीत नीरव -