गुरुवार, 7 जून 2012

ये क्या बना डाला हमने ..


आजादी के पहले और कुछ बाद भी,
आभाव ग्रस्त लोग,
बसते थे इन गाँवों में,
जिनके बड़े दिलवाले किस्से,
आज भी मन को गुदगुदाते हैं,
गाँव के चित्र संग,
कहानियों और कविताओं में.

धनहर खेतों की माटी,
गुजारे लायक अन्न तो,
ऊपजा ही लेती थी,
जिससे अपने पेट भरने के संग,
किया जा सके आतिथ्य सत्कार,
जो बीतते समय के साथ,
ग्रामीण मानवता का मंत्र बन गया.

रात के अँधेरे में जहाँ,
कोसों भ्रमण कर आते लोग,
दिन में कोई भी पूछ लेता,
आपसे नाम, पता, गाँव और उद्देश्य,
इस क्षेत्र में आने का,  
हरेक को फिक्र थी,
अपने समाज की, अपने भविष्य की.

आज सुविधाएँ ज्यादा हैं,
पर आभावों के नए नाम हैं,
गाँव जाने पर कोई भी नहीं पूछता,
हाल समाचार, आने का कारण,
पूछते हैं सब इतना ही बस,
बी० पी० एल० या फिर इंदिरा आवास दोगे,
या क्या दोगे हमें जो तुमको हम समय दें,

पूरा गाँव घूम जाएँ,
कोई पानी तक को नहीं पूछता,
शायद अब अतिथि देवो भवः नहीं,
इसमें गलती इनकी भी नहीं,
पाठशालाएं जो ये सिखाती थीं,
अब वहां मुफ्त वाले ढाबे चलते हैं,
या खैरात बंटती है सुविधाओं की.

खूब मेहनत कर लें,
आधुनिक मशीन और तकनीक से,
अन्न नहीं उपजता,
कि परिवार पेट भर सके,
पलायन गाँव को सोख रहा,
तीज,त्योहार, रिश्तों को फीके कर चला,
सही नीयत में ही तो बरकत होती है.
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ये क्या बना डाला हमने,
ग्राम स्वराज के नाम पर,
जातिवाद की गहरी खाईयां,
अविश्वास के विषैले कांटेदार जंगल,
स्वार्थ निहित कार्य में लिप्त,
हठी, आलसी और मतलबी लोग,
जो हर पल देश को धोका देने को तैयार हैं.