(रोज-रोज एक ही बात सुनकर परेशान हो गया हूँ. नई स्कीम, नए प्लान, नए वायदे..फिर वही ढाक के तीन पात. कभी-कभी लगता है, ये जीवन जीने के तरीके ही तो हैं...सो लोग ऐसे ही जी रहे हैं- जनप्रतिनिधि, बुद्धिजीवी प्रशासन और हम )
न सब्सिडी की दान चाहती हूँ,
स्वावलंबी बनने की धुन है,
सारा जीवन अभी जीना है ,
समाज में मैं आत्मसम्मान चाहती हूँ.
समाज में मैं आत्मसम्मान चाहती हूँ.
मत दो महादलित सा अभिशाप,
न दो “मिड डे मील” की सौगात,
एहसान जताते रहते देकर
हमारा हक,
वोट मांगते हमें दिखाकर हमारी
जात,
तुम जैसे तिलचट्टों से
अपना,
घर साफ़ रखना चाहती हूँ.
वृद्धा पेंशन और इंदिरा
आवास,
अब यूँ खैरात में मत
बांटों,
हमको बसाने की आड़ में,
खुद ही मलाई मत काटो,
जोंक जो चिपटे हुए हैं बदन
से,
शिक्षा का उनपर नमक डालना चाहती हूँ.
हर वक्त ख्वाहिशें यूँ
अंगूठा दिखाएँ,
लोकतंत्र हेर-फेर कर परेशां
कर जाये,
कभी बिरादरी कभी जाति से,
बेरहमी से बेदखल कर जाए,
इन लकड़बग्घे से बाबुओं के,
चंगुल से अब बचना चाहती हूँ.
ये कुछ नहीं तुम्हारे चोंचले हैं,
विश्वास के नाम पर हमें छले हैं,
किसने कहा तुमको हमें कुछ दो,
आशाएं बढ़ायी थीं अब भुगतो,
सिर्फ तुम्हारे सफ़ेद लिबास की खातिर,
अब ये सम्मान नहीं चाहती हूँ,
मैं अब गरीब कहलाना नहीं चाहती हूँ.
-नवनीत नीरव-