मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

अजनबी शहर


जमते अँधेरे के साथ,
दफ़्तर से लौटते हुए,
संकरी होती जाती हैं,
नए शहर की तमाम गलियाँ,
भटकने लगते हैं,
चंद आवारा कुत्ते,
स्थूल शरीर, बड़े सींगों वाले,
बेपरवाह सांढ.

धीमे-धीमे रेंगती हैं गलियाँ,
ठिठकती हुईं,
सोचती हुई सी,
आगे चलूँ या वापस लौटूँ,
सहमी हुई,
सकुचाई,
प्रतीक्षारत,
बार-बार दिलासे देती हुई खुद को.

खुरदुरी स्लेटी दीवार पर,
हवा संग फड़फड़ाते,
फटे बेढंगे पोस्टर,
नालियों के तह से आती दुर्गन्ध,
जलाती हुई नथुनों के बाल,
कपाल से चू कर बहती हुई पसीने की बूँदें,
गीला कर जाती इस सर्दी में,
ललाट के समीप उगे बालों की जड़ें.

इंतजार अक्सर लम्बा खिंचता है,
गाढ़ा और निरीह,
दूर से आती छिटपुट रौशनी के बीच,
जलती बुझती आशाएँ,
ओढ़कर सन्नाटे का लबादा,
सिमटते हुए परत दर परत,
बिजली के खम्बों से झूलते तारों के जाल,
होनी-अनहोनी के बीच उखड़ती साँसे.

अचानक अबूझ सरसराहट,
पैरों के बीच आशंका सी,
एक सिहरन...,
भींचे हुए अपनी आँखें,
भागते हुए बदहवास,
टकराते भिड़ते इधर-उधर,
फाँदते हुए बेतरतीब सीढ़ियाँ,   
फूलते दम के साथ,
लम्बी सांस लेता हूँ दरवाजे पर.

अजनबी शहर इसी तरह डराता है,
मुझे हर रोज.



-नवनीत नीरव-