जब से यहाँ विकास की बयार बही
है,
गाँवों में हर तरफ ही आग
लगी है.
दिन भर चलते हैं भारी मशीन
खेतों में,
शाम ढले पौधे-चारे की होली-मशान
जली है.
कोई नहीं यहाँ जो काटे,घर
ले जाए इन्हें,
मवेशियों के पेट पर सीधे
लात पड़ी है.
आहर- पाइन भर दिए बसने के
नाम पर,
मनरेगा के काम की अभी बंदरबांट
भई है.
घर बड़े हुए सबके आँगन दिल छोटे
कर,
गलियों -नालियों में
अभी तक जान फंसी है.
मिटटी की सारी कोठियां कब की
फोड़ दी गयीं,
नए कपड़े-गहने की वहाँ
आलमारी सजी है.
डिस टीवी, मोबाईल ही अब जिंदगी
हुई,
इसी तरक्की से गाँव की पहचान
हुई है.
अब आग बुझेगी कैसे ये हम-आप
सोचते हैं,
कितने हैं जिन्हें यकीं नहीं कि आग भी लगी है.
-नवनीत नीरव-
1 टिप्पणी:
kafi achchhi.... mauka milne par comment karta hu...
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